विज्ञान प्रयाग का मुख पत्र | Vigyan Prayag Ka Mukh Patra
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
116 MB
कुल पष्ठ :
553
श्रेणी :
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No Information available about गोरखप्रसाद श्रीवास्तव -Gorakh Prasad Shrivastav
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)ध विज्ञान, अक्टूबर, १९३७
शुओंका ज्ञान अभी फैला नहीं था 1. श्रमी! तक लोग
यही समझते भे कि कीटाणर््रोका सम्बन्ध केवल रोर्गो-
से है । डिब्बा-बन्दीके कारख़ानेवाले कीटाणुओंका नाम
नहीं लेते थे क्योंकि वे समझते थे कि लोग इससे भड़क
जायेगे और डिब्ब्रेमें बन्द सामग्री खायंगे हीनहीं । अगर
किसी वषं कीटाजुओंका अधिक प्रकोप हुआ तो
यह बात किसीकी समरूमें न आती थी और केवल
ही कहा जाता था कि इस व ऋतु ही अनुकूल नहीं
है। अब कीटाशुओंका ज्ञान इतना पक्का हे! गया है कि
हम लोग ठीक-ठीक जानते हैं कि क्या करना चाहिये
और हम आजकल शिया पत्येक बार सफलता पा
सकते हैं। कीटाशुओंसे बचनेका सबसे अमोघ अस्त्र
सफ़ाई है, ठीक उसी तरह जैसे आध्रुनिक शल्य-चिकित्सा
पूर्ण स्वच्छुतापर टिका हुआ है। अब इस उद्यमका
कायापलद ह; गया है ओर बड़ी वैत्तानिकं रीतिसे सव
काम होता है
बनानकी रीतिर्या- आरम्भमे खुले बरतनमें
खौलाये गये पानीसे डिब्बे गरम किये जाते थे । इस प्रकार
२१२ डिग्री फ़ा० ( खौलते पानीके तापकम ) से
अधिक आँच बोतलोंको नहीं दी जा सकती थी । शीघ्र ही
पता चला कि यंदि बोतलेंको किसी प्रकार ओर ज़्यादा
गरम किया जा सके तो अधिक कीटाणु मरंगे, और इस
रकारं थोडे ही समय तक आंच दिखानेसे अधिक
सफलता मिल सकेगी । इसलिये कुछ दिनोंके बाद
लोग पानीमें नमक घोल कर खौलाने लगे जिससे कि
तापक्रम थोड़ा सा बढ़ जाता था । कुछ समयके बाद
एक दूसरी रीति ल्लोगोंको पसन्द आई । उनके मालूम
हुआ कि यदि नमकके बदले केल्सियम-कोराइड पानीमें
स्वव अधिक मात्रामे घोल दिया जाय तो २४० डिग्री
फ़ा० तक्का तापक्रम आसानीसे पा सकते
हैं। परन्तु इस रीतिमें एक असुविया यह थी कि डिब्बे
बदरंग हो जाते थे और उनके साफ़ करनेमें बहुत पैसा
प्रच होता था। अंतमें ल्ोगने उस रीतिको पसंद
किया जिसमे भापको दबावमे रभ्खा जाता है । पःनीकेो
बन्द बर्तनमे रख कर॒ खूब आँच दिखाई जाती है
[ भाग ४६
और भाप के निकलनेके लिये छेद बहुत छोटा रक्खा
जाता है, जिसपर एक कमानीदार ठक्कन.लगा रहता है ।
इस कमानीको -कसने या दौला करनेसे भापके दबा्को
इच्छानुसार अधिकं या कम किया जा सकता है
और २४० डि० तकका तापक्रम आसानी से पाया
जा सकता हे ।
दन्य मशीनें - आजकल तो प्रत्येक कामको
सुविधाजनक रीतिले करनेके लिये मशीनें बनी हैं
जिनसे हर प्रकारके फल और तरकारी डिब्बो्मे
बहत शीघ्र भरे जासकते हैँ । फर्लोको एक स्थानसे
दूसरे स्थान तक पहुँचानेके लिये पट्ट , उनके धोने,
चुनने, छीलने, तराशने, भरने ओर बन्द करनेके लिये
अलग-अलग मशीनें बन गई हैं । इन मशीनोंकी
हायतासे बहुतसा माल थोड़ेसे स्थानमें थोड़ेसे समयमें
डिब्बॉमें बन्द किया जा सकता है ।
अमरीकामें . डिब्बाबन्द सामग्रीकी खपत--
सन् १८६० में इस उद्यमर्म लगे हुए एक हज़ार
कारख़ाने थे और वहां १२ करोड़ रुपयेका माल प्रति
वषं तैयार होता था । सन् १६१६ में लगभग ५३
अरब रुपयेका माल प्रतिवषं बनने लगा । साथ ही
डिब्बेमें बन्द चीज़ें सस्ती भी हो गई जिससे गरीब
लोग भी उन्हें खा सकते थे । अब जनताको इस बातका
पता लग गया है कि ये चीज़ें बड़ी सफ़ाईसे तेयार-
की जाती हैं और ताज़े भोजनोंकी तरह ही यह सब
डिब्बेमें बन्द सामग्रीभी स्वास्थ-प्रद है। सन् १६१६
में तीन खरब डिब्बे खच हुये थे। आजकलतो इससे
कहीं अधिक माल बनता होगा ।
यह आवश्यक है कि भोजनमें फल ओर हरी तर-
कारियाँ भी सम्मिल्षित रह । परंतु प्रत्येक ऋतुमें, विशेष
कर बद श्रि, ताज्ञे फल ओर तरकारिर्योका मिलना
मुश्किल जाता -है । फ़लल पर शहरोंस्ते दूरके देहातों
में कुछ चीज़ें बहुत सस्तीहो जाती हैं । परंतु बहुत दिन
तक न ठहर सकने के कारण वे न तो अपने जन्म-स्थानमें
अधिक दिनों तक रक़्खी जासकती हैं ओर न शहरों तक
पहुँचाई जा सकती हैं। परंतु डचित रीतिसे डिब्बेमें
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