विज्ञान | Vigyan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१७ विज्ञान, अक्दूबर, (6४७ | भाग ६६ शविष्ट है---यह सव ईशावास्य है | समस्तं ब्रह्माण्ड का विराट्‌ स्वरूप पुरुष सूक्र--सदस्रशी्वाः पुरपः स्रधा अनेक भाषाओं म यस्य भूमि । प्रमा पू्य॑श्चह्ुः, यस्यवातः प्राणायानों आदि में अभिव्यक्त है। यह बाह्य जगत की सृष्टि है | पर इससे कुछ कम विलक्षण सृष्टि हमारे पिण्ड में भी स्थित है। शरीर भी एक ऐसी रचना है जिसकी विलज्ञनणता स्पष्ट है। शरीर से अ्रभिप्राय मन आदि अस्तःकरण चतुश्च से लेकर स्थल शरीर तक सभी से . है--आननन्‍्दमन कोष से लेकर अन्नमय कोष तक। शरीर से गस्पर्य्यं केवलं मनुष्य कै शरीर से ही नहीं प्रस्युत समस्त प्राणियों के शरीर से ्ै। प्रत्येफ विचारवान्‌ ह्यमभमे का प्रयत्न करता है कि बह्म जगत्‌ क्या है' ओर यह अन्तर्जगत्‌ के सम्बन्ध को सुलमभाते जलभाते ही वीतता है । शैराव में जिस दिन पहली बार हमने अपने मेत्र खोले तभी से हमने बहिजंगत्‌ की अपेक्षा से अपने को झोर अपनी अ्रपेक्षा से बहिजेंगत्‌ को समभने का' प्रयत्न किया । अपने श्वासों की श्रन्तिम घड़ीयों तक भी हम यही समते स्ह जायंगे । रुष्ट की परिित्तनशीलता कौ देख कर के ओर प्राणिमात्र में जन्म और मरण की व्यवस्था देख दौर सब यही मानते हैं कि सष्टि ओर जीवन दोनों का आरम्म है, ओर इस दोनों का कोई उद्दे श्य भी है। सृष्टि का आरम्भ कहाँ से होता है इसके सम्बन्ध में अनेक आचारयों ने कल्पनायें प्रस्तुत की--- (१) शनन्‍्य से जगत्‌ उत्पन्न हुआ--शन्यं तत्व॑ं भावों विनश्यति वस्तुपमत्वादिनाशस्य । (सांख्य १-४४ ) (२) अभाव से भाव--अ्रभावादभावोत्पत्तिनानुपसथ प्रादुरमावात्‌ । ( न्यायं ५।१।१४ ) (३) ईश्वर से--ईश्वरः कारशं पुरुष कर्माफल्य दर्शनात्‌ | ( न्याय ४।१९॥१६ ) (४) अनिमित्र से--अनिमित्त में भावोपत्तिः कश्टक तैदणायादि दर्शनात्‌। ( न्याय ४।१।२२ ) (५) किसी नित्य से नहीं--सर्वमनित्यमुत्पत्तिविनाश- धर्मकदपात [ न्याय ४॥१।१२ | [६] सृष्टि निस्य दी दै---सवनिः्यं पशचभत नित्येत्वात्‌ | [ न्याय ५१।२६ | व्यक्ति यही . ७--कोई चीज़ किसी से उत्पन्न नहीं-सभी রি एथक्‌ दै सर्व प्रथग्‌ भाव लक्षण प्रथक्‌ स्वात्‌ ८--सब अभाव ही है अतः उत्तत्ति और नाश का प्रश्न ही क्‍यों ? < ~ सर्वममावो भावेष्नितेर्‌ तराभाव सिद्धः) ( न्याय ४)१।३७ ) ६--सब्र अपेक्षा से सृष्टि ओर विनाश है--- न स्वभावसिद्धिरापेक्षिकत्वात्‌ । (न्याय ४)१।३९) इसी प्रकार श्रूति वाक्य इस प्रकार भी हैं-- कालः स्वभावों नियतिर्यवच्छारै, भूतानि योनिः पुरुषइति चिन्त्या संयोग एंपां न नत्वाध्मभावादात्मा प्यनीशाः खुख दुःख है तोः । इस स्थल पर कल स्वुमाव, नियति, यब्च्छा, भूत, पुरुष आदि सकश्टि के कारक बताये गये हूँ। हम आज यह मान कर चलेंगे कि सृष्टि का कारण---ईश्वर, जीव के अधह््ट और उपासय प्रकृति तीनों हैं । सृद्टि का आरम्म केसे हुआ यह कहना बड़ा कठिन है | स्वयं वेद इस सम्बन्ध में अनिर्बचनीयता स्वीकार करते हैं---नासदीय सूक्त ( ऋ० १०।१२६) देखिये-- नासदा सीन्नो सदासीत्‌ नासीद्रजों नो व्यामापरोयत्‌ । किमाकरीकः कुहकस्य शर्मन्रम्भः किमासीदू गहन॑ गरभीरम्‌ ॥ १ न मृत्युरासीदमृतं न तींह न राब्या अहः आसीतू प्रकेतः । झनीद লাল বগা तदेक तस्माद्वान्यन्न पर। किचत्रम ॥२॥ तम श्रामीत्‌ तम साग्मपरं ऽप्रकेतं सलिलं सवमाददेम्‌ । तच्छयेनाम्ध विदितं यदासीत्‌ तथसस्तन्मदिनाजायतैकम्‌ ॥२॥ कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसोरेतः प्रथमं यदासीत्‌ | सवोधन्धमसीत निरविन्दन्‌ हदिप्रतीप्या कषयोमनीषा ॥४॥ तिरश्चीनो विततो रशमिरेषधः स्विदासी दुभरिशिदयसीत्‌ । रेतोधाश्रसन्‌ महिमाम असन्‌ ग्धा श्रवस्तात्‌ प्रयतिः परस्तात्‌ ॥५।। हय॑ विसृश्टियत आबमभूव यदि वा दे यदि वा ने । यो अ्रस्याध्यक्ष: परमेव्योमन त्सो' अंगवेदं यदिवान वेंद ॥५)) सृष्टि के सम्बन्ध में यदि वा दथे यदि वान, श्रीर 'सोश्रंगवेंद यदि वानवेद! कहके स्वयं शर.ति वाक्य कौतूहल




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