कब तक निहारूँ | Kat Tak Niharun

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Kat Tak Niharun by जनक अरविन्द - Janak Arvind

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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वतमान सभ्यता का हमारी कविता एर परमाप 964१४६५७ 4१७39 ० ०० 49 9 १ 9, 2, क 0 0 ০ ০১৬ এই ক + ०8० १4 499 + ०३ /१६ ५९१५३ ०५३ ७४ हैक ५१% ४५ ५४९९३ ५३ के १९३३ ९५११५४५००५३४३७१ ३३५५ ०५ १७० ३/७९ ५४ ५९% + उस आदि युग की बात कोन जानता है, जब इस जगत में आते के पश्चात सब से पहली बार जाने किस सुख था दुःख की गहरी अनुभूतियों से व्याकुल होकर मानव हृदय सें भावना के अंकुर फूटे होंगे। परन्तु इतना भिश्चय है कि ऐसा तभी हुआ होगा, जब इस दुनियाँ में रहते हुए तथा अकृति के श्ांचल में पनपते हुए मानव में अकृति ओर उस की इस शाश्चयेजनक दुलियाँ के ग्रति आभास करते की शक्ति जागी होगी और तभी से कविता का भी जन्म हुआ | परन्तु उस युग की कविता और आज की कविता में बड़ा भारी अन्तर है। उस दिम्त तो कविता का स्वरूप जितमा अस्त-व्यस्त द्यौर्‌ साधारण था. उतना ही सच्चा ओर स्वाभाविक मी था। आज की कविताओं की भांति वे मस्तिष्क के परिश्रम और आ्म-प्रयंधन से अछूती थीं, उस दिन तो मानव हृदय से भाव ₹ुप में जो चुछ भी उमर आता था, उसे वह अपनी सीधी सादी भाषा में व्यक्त कश के स्वतन्त्रता पुवक अल्लाप दिया करता था, और यही उसकी कविता थी |




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