परीक्षामुखसूत्रवचन भाग - 5, 6, 7 | Parikshamukhasutravachan Bhag - 5, 6, 7

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Parikshamukhasutravachan Bhag - 5, 6, 7 by मनोहर जी वर्णी - Manohar Ji Varni

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पञ्चमभाग [ १३ भ्रथ्यक्त नाम हुआ द्रव्य जैमा और व्यक्त नाम हुआ पर्याय जैसा । प्रत्येक पदार्यमे ये दो बाते पायी जाती हैं ना ? पदार्थ है तो वह अपने स्वरूपमे श्र व है। द्रव्यरप्टिसि वह पदार्थ निन्‍य है और प्रव्यक्त है । द्रव्य किसीने देखा है क्या ? कोई सा भी द्रव्य | पद्गलमे जो मूल द्रव्य है वह है परमाणु और परमाणुमे भी फ्रमाग्गुकी पर्याव होती है उसमे भी जो अगा द्रव्य है वह अ्यक्त रहता है ना, प्रत्येक द्रव्य श्रव्यक्त रहता 4, उनकी दशा, परिणमन, स्थिति व्यक्त हुआ करती हे तो प्रकृतिम जो शक्ति भ्रण है वह तो परिणति है नही । वह सदा रहने वाली है शौर जो ज्ञान है वह व्यक्त श्रश है वह परिणति है। तो कहते हूँ कि यही वात श्रात्मामे लगा लेना चाहिए। आत्मामे जो द्रव्य है वह तो श्रव्यक्त है श्रौर सदा रहने वाला है भीर जो उसका व्यक्त भाव है ज्ञान हो, सुर हो दु ख हो वह सब उसकी पर्याय है भौर वह श्रनित्य हैं। यहाँ भी कोई विपत्ति ही | सतूमे सर्वथा श्रपरिणामित्वका श्रभाव-ग्रौर भैया ' आत्मा तो क्‍या, कोई भी पदार्थ सर्वेथा श्रपरिणामी हं।ता ही नहीं, श्रौर श्रपरिणामी है ही नही कुछ, जो कुछ भी है वह निरन्तर परिणमता रहता है। नित्यका लक्षण कहा है - तद्भावा- व्यय नित्य । मापने पदार्थके होते रहनेका व्यय न हो सो नित्य है। नित्य भौर कुछ अलग नही है, वह अपने स्वभावमे भ्रपनी सीमामे श्रपने ही श्रनृकरूल सदव होता रहे, उसका नाम है नित्यपना । होते रहनेका विनाश नही होतां। तो शक्तिकी श्रपेक्षा भात्मा श्रनित्य है भरौर व्यक्तिकी अपेक्षा वे सब व्यक्तिया नप्ठ होती रहती हैं। अपरि- णामी कोई पदार्थ नहीं क्योकि जो श्रपरिणामी हो, जरा भी न बदले, जिप्त की कोई झवरथा ही न बने वह तो श्रसत्‌ है । कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं जो कुछ परिणमन न रखता हो घौर सदूभूत हो । भ्रस्वव्यवसायीके परन्यवसायित्वका भ्रभाव-- भ्रौर भी सोचिये एक मोटी यात यह है कि ज्ञानकों यदि झपनी ही व्यवस्था करने वाला माना जाय तो वह पदार्भ फी व्यवस्था भी नही कर सकता । यदि ज्ञानं श्रपने श्रापकों नही जान पाना, मैं ठीक ট इस प्रकरारफा प्रत्यय यदि रान बुद नही कर पाता तो उस ज्ञानका यह अधिकार नहीं है कि किन्‍्ही परदार्धोको वह जानता रहे क्योकि परदार्थोकों जानना, परदार्थोकी व्यर्था वनानां यह श्रमुक है, यह्‌ मुक है, एस व्यवस्थाका श्रर्थ है क्या ? उस उस प्रषारफा प्रपनेमे भ्ननमवन चलना । श्रपनेमे उस तरहक जानन होना । तो वहु भ्रनु- भयन उम बुद्धिम्‌ कने वनेगा जो वुद्धि युदको नही जाननी । सास्य निद्धान्तमे भ्रात्म तत्त्व स्यतधतोहैपरवद्‌ माधद्रष्ा रै, वंचयिता है, ज्ञाना नही है उस तरह मानते & | श्रौर प्रकृतिया धर्म ट्र ज्ञान । उसका जब ससर्ग होता है झात्मामे तब यह आत्मा पदार्य वा ज्ञान परता है ऐसा सिद्धान्त है लेपिन यह तो सोचो পি जो भी जानने वाला ठ, जानने वाना है জান स्वय दुसरेगी अपेक्षा ले रुसकर दूमरेफे समगकी पराधीनता




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