वैदिक इन्द्रोपाख्यान का उदभव एवं विकास एक समीक्षात्मक अध्ययन | Vadik Endropakhyan Ka Udbhwa And Vikash Ek Samikshatmak Adhyayn

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ऐसा प्रतीत होता है कि वेदमंत्रों की मुलप्रकृति रक्‌ , , यजुष एवं साम ही थी । जैमिनीयसूत्र में इन तीनों को परिभाषित करते हुए कहा गया - 1 तजसच्चत्रार्थकरोन पादव्यवत्था (रजेमि0 2-1-35 2 गी तिष्व सामाख्या जेसि0 2-1-36 3. शेध यजुष ्राब्दः पै मि0 2-1-37 सप्रकार वेदर्मत्रौ के त्रैविध्यके ही कारणं उत “त्रयी কলা ঘা | वेदत्रयी के तायं अधर्वविद कौ भी गणना करने पर उत्े चतुष्टयी ' की संज्ञा मिली । परन्तु अथर्ववेद वेदमंत्रों की किसी प्रकृति जिते रक्‌ , यदुष एव॑ तामूं कौ संकेतित नही करता । बल्कि वह रुक अ्रधिकििघ “अथर्वा” के नाम पर आधारित है) कमी -क्भी उते तमन्वित रूप ते अर्वा ङ्ग रस-सं हिता” भी कहते हैं । त्रयी के मंत्र आम्ृष्यिक फल देने वाले हैं परन्तु अथर्ववद शैेहिक-फ्ल देता है | इस आशय की व्याख्यायें শী प्रदर मात्रा में मिलती है | अथर्वविद के मंत्र मारण, मोहन, उच्चाटन , विद्वेषण, विधापहार, राष्ट्र, धर्म , संस्कृति , विश्रदश्ञान्ति , सवोदिय तथा पृथ्वीम॑गल जैसे सांसारिक विषयों सीध जुड़े हैँ । फ्लतः अक्‌ , दुष एवं सामकी प्रकृति ते पथक्‌ होति हर भी उनका महत्त्व किसी माने मे क्म नही हि । निक्त ।11-2-16 तथा गोपथ-ब्राइमण 15५ में अथर्व शब्द की रोचक व्याख्या मिलती है । थर्वई धातु हिँता श्वँ कौटिल्यवाची है । अतः अधर्वन्‌ का तात्पर्य है - अकुटिलता तथा अछिंसा वृत्ति ते मन की स्थिरता प्राप्त करने वाला व्यक्तिृञ्रधिकिेषु ' इस भाव की पुष्टिट अथवविद के 6-2 तथा 20-2-26/28 संख्यक मंत्रों ते भी हो जाती है । गद्टी महर्षि शरद च्यतुर्थ পির के ब्यवस्थापक है | इसप्रकार त्रयी शव॑ँ चतुष्टपी - दोनों के ही पक्ष प्रभृत प्रमाण मिलते हैं । अवान्तरकाल ओँ त्रयी शब्द “गकृ-यजुष्ठ तथा साम के अर्थ में नहों, प्रत्युत चारों वेदों के अर्थ में छूढ़ हुआ ता दृष्टिगोचर होता है । রাতারাতি পাস नि मनमयिि द्रष्टव्य: तऋरघ्र्मनेद्‌ 2८ 226 হার 2৪




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