भक्त - चरितावली भाग - 1 | Bhakt Charitawali Bhag - 1

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Bhakt Charitawali Bhag - 1  by श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी - Shri Prabhudutt Brahmachari

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( रै४ ) विन्तु, यह हतभागिनी इतनी भाग्यहीन निकली कि फिर लोर कर आ गई। तभी तो पाठक इसके सम्बन्ध मे कुछ जान रहे है। यदि यह “मैं? मिटक्र लाल हो जातो, तो फिर उस आनन्द का कहना ही क्‍या है? उस आनन्द का वशेन फिर भला कौन करता ? बे, के टुकड़े ने कभी लौटकर बताया है कि समुद्र की थाह इतनों है ? अस्तु--उन लालों की जो थोड़ी बहुत भलक इस “में”? पर पडो है, उससे पाठक भो थोडा बहुत आनन्द उठावे । कारण कि आनन्दी जीवों के संसर्गियों के ससर्गियो से संसग रखने में भी कुछ न कुछ आनन्द तो मिलता ही है। एक बात ओर है। मे निरभिमान होकर इस बात को कहता हूँ, कि मेरा इस ग्रन्थ मे कुछ भी नहीं है। मेरी तो अपनी इच्छा तक नहीं है। भगवत्‌-प्रेरणा ही से जो भी कुछ हुआ है, सो हुआ है। इस ग्रन्थ के सम्पादन में बहुत से ग्रन्थों की सहायता लेनो पड़ी हैं। इस जंगल में बिना भगवत्‌-कृपा के इतने ग्रन्थों का प्राप्त होना कठित ही नही, किन्तु असंभव थः । जिन, सच्वगुण-प्रधान महायुभध्वी के हदय मे भगवान्‌ ने विराज कर उन्हें मेरे पास ग्रन्थ भेजने को शुभ प्ररेणा की, उन श्रद्धेय और पूज्य मंहालुभावों को में श्रत्यन्त ही सोभाग्यशाली समझता हूँ और इसीलिए में उन्हें धन्यवादाह भी मानता हूँ, कि भगवान्‌ के परम अनुग्रह के कारण वे संबसे उत्तम सत्त्व गुण कोधाप कर सके हैं। ब्रुस्तक




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