करकंड चरिउ | Karkand Chariu

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रस्तावना १३ निर्देश हैं--ाहिलवादिका, चन्द्रवाटिका, लघुवन्द्रवाटिका, शक्रवाटिका, पचाइतलवाटिका, आम्रवाटिका, मौर घगवाटिका । ( जै० शि० ले० सग्रह, भाग २, छेख़ न० १४७, पृ० १९० )। इन वाटिकाओमे दाताने अपने नामके अतिरिक्त अपने घर्मरक्षक नरेश, उनके विशेष इष्टदेव शिव तथा उनके चर्धानेय वश एव चनदरकगचारयाम्नायकौ स्मृति चिरस्थाय वनानेका प्रयत्न मिया प्रतीत होता है। भाश्च नही, जो यह चन्द्रकराचार्यासताय चन्देलवशी राजकुलमे-से ही हुए किसी जैन मुनिने रथापित की हो। स्वयं कनकामर भी इस राजबशके रहे हो, तो आश्चर्य नहों। चदेलछोके क्षत्रियमा में जाने एवं कनकामर-द्वारा अपनेकों ब्राह्मण कहे जानेते उम्त बातमें कोई विरोध उत्पन्न नही होता। चन्दे अपनेक्रों अति व चन्धानरेयकी सन्तान तो मानते ही हैं। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, चन्देलवज्ञी नरेश जेज्जाकके नामसे ही वुन्देल- खड जेजकमुक्ति कहलाया ओर यहाँके जुझौतिया ब्राह्मण आज तक भी प्रस्तिद्ध है। केवछ राजवशी होनेसे घन्देल राजपूत जातियोमे गिने जाने लगे है । ग्रथकारकी गुरुपरम्परा अथके प्रारम ( १, २, १ ) में कविते सरस्वतीके अतिरिक्त पडित मगलदेवके चरणोका स्मरण किया है। तथा अन्तिम प्रशस्ति ( १०, २८, ३ ) में अपनेक्ो बुध मगलदेवका शिष्य कहा है। इससे उनके गुरुका नाम मगलदेव स्पष्ट है। इन मंगलदेवका तथा उनके गण-गच्छ आदिका अन्य कोई परिचय प्रथमे नही पाया जाता । कितु रत्नाकर या धर्मरत्माकर नामका एक सस्क्ृत ग्रथ मिलता है जिसमे उसके कर्ता का नाम पढित संगक दिया गया है। इस ग्रथकी एक प्रति बलात्कार जैन भण्डार, कारजामें ( केटेलाग भाफ सस्कृत एण्ड प्राकृत मैतृस्क्रिप्टस इन सी पी एण्ड बरार, क्रमाक ७८२९ ) तथा दूसरी प्रति शास्त्र भण्डार दि० जैन मन्दिर पाठोदी, जयपुरमें है ( राजस्थानके जैन शास्त्र भण्डारोकी ग्रथ सूची क्र० ७७८ )। इस जयपुरकी प्रतिमें ग्रयका अतिम पुष्पिका-बावय है, “स० १६८० वपं काष्टा सन्‍्दृतट्भामे भद्दारक प्रीमूषणशिष्य पढित मगलकृद शास्त्रस्नाकर नाम शास्त्र सम्पूर्ण ।” इसपर-से ऐसा प्रतीत होता है जैसे त० १६८० ग्रथकी रचनाका काल हो | कितु यथार्यत यह कालनिर्देश उक्त प्रतिके लेखनका ही हो मकक्‍ता हैं, क्योकि कारजा शास््रभण्डारकी प्रतिमे उसका लेखनकाल १६६७ अकित है । काष्ठासघ और नत्दि- तट ग्रामका प्राचीनतम उल्छेख देवसेनकृत दर्शनततार ( गा० ३८ ) में प्राप्त होता है, जहाँ विक्रमराजकी मृत्युप्ते अर्थात्‌ विक्रम सबतके ७५३ वर्षमें नन्दितट ग्राममे काष्ठासधकी उत्पत्ति कही गयी ह । यदि कमकामरके कालके समीप इस सघके श्रीभूषण और उनके शिष्य मगलदेवका अस्तित्व सिद्ध हो तो वे हो प्रस्तुत ग्रथ- कर्ताके गुद माने जा सकते है। किन्तु वर्तमानमे उवतत धर्मरलाकरकी पुष्मिकाके अतिरिक्त अन्य कोई साधक-बाधक प्रमाण उपलब्ध नहीं है। हाँ, कुछ सद्य उत्पन्न करनेवाली यह बात अवदय है कि कविने उक्त गण-गच्छका उल्लेख न करके अपनेको चन्द्रपि गोत्रीय कहा हैं । इंथका विषय इस प्रथमे कंद ( अपभ्रश-करकड ) महाराजका चरित्र दश सधियोमे वर्णण किया गया है । অধীর यह कथा इस प्रकार हैं अगदेशकी चम्पापुरीम घाढीवाहन राजा राज्य करते थे। एकवार वे कुसुमपुरको गये और वहाँ पश्मावत्ती नामकी एक भ्रुवतीको देखकर उसपर मोहित हो गये । युवतीका परक्षक एक माली था जिससे बातचीत करने आदिसे पता छगा कि वह युवती यथाय्यमे कौक्षाम्त्रीके राजा वसुपालकी पुत्री थी। जन्म- ममयके अपशकुनके कारण पिताने उसे जमना नदीमें वहा दिया था । राजपुत्री जानकर घाड़ीवाहनने उसका पाणिग्रहण कर लिया और उसे चम्पापुरी छे आये | कुछ काल पदचातू वह गर्भवती हुईं और उसे यह दोहरा उत्पन्न हुआ कि मन्द-मन्द वरतातमे, में तररूप घारण करके, अपने पतिके साथ, एक हाथीपर सवार होकर, नगर-




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