मोक्ष शास्त्र कौमुदी | Mokshashastra Kaumudi

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Mokshashastra Kaumudi by मुत्तयानन्द सिंह जैन - Muttayanand Singh Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मोक्ष शास्त्र कोपुदी (५) प्रध्याय १ শপ পাপী সাল লাতিন तो उनके प्रति उसका नतो प्रेम हो, त भक्ति हो । धर्म की रुचि--भक्ति भी विश्वास से होती है। सब कत्त व्यों का मुल-मंत्र विश्वास है, विश्वास बिना कोई काम नहीं बनता । रोगी को औषधि पर विश्वास न होने से प्रायः हानि ही उठानी पड़ती है। तत्वों का यथार्थ विद्वास किए बिना सच्चा आत्म विश्वास नहों हो समता । सच्चा आत्म-विश्वास हो श्रात्म कल्यारा का सुख्य हेतु है। अतः सर्व॑ प्रथम तत्त्वों का यथार्ण विश्वास करना चाहिए। संसार फे सब पदाथाः को ठीक ठीक जानने को रुचितो प्रयः सभी मनुष्यो मे पाई जातौ है, कितु धन, प्रतिष्ठा श्रादि सांसारिक आकांक्षा के कारण पदोथो के जानने रो रच्‌ सम्परदर्शव नहीं हैं क्यों कि उस का फल तो मोक्ष न होकर संसार ही होता है बस आत्म विकास के लिये तस्व निश्चय की रुचि ही बविपरोत ऑसभिप्राय रध्ति बनती है । श्रतःश्रात्म- विक्रासके काररण तत्त्व निश्चय को रुचि जो केवल आत्मिक तृप्ति के लिए होती है वहो सस्यग्दर्शन है | सम्यग्दशेन के मख्य चार बाह्य चिन्ह 'हैं १ प्रशम २ सवेग ३ श्रचुकपा शेर्‌ ४ स्रास्तिक्य । कषायों का शिथिल-मंद होना, सूटे पक्षपतका न होना, बदला लेनेकी बुद्धिकान होना-्रशम,ससारके दुःखों से मयभोत हो सांसारिक भोगों से निरक्ति तथा धमश्रोर धर्म के फल मे प्रीति होना-सवेग, दुःखी प्राणियों के प्रति दयः, उनके दुःख दूर करने की इध्छा व भावना- अनुकंप, ओर श्रात्सा, परमात्मा, स्वर्ग श्रादि परो क्रितु युक्ति-सिद्ध पदाथो का श्रस्तित्व स्वीकार करनो आस्तिकय हैं| यह चारों चिन्ह कषायों की संदता से किसीकिसी सिथ्याहृष्टि में भी पाए जा सकते हैं कितु सम्यग्दर्शन' होने पर सभ्यग्हृष्टियों के तो सब ही के होते हैं । सिथ्यादृष्टियों मे यह चारो चिन्ह प्रशनाभास आदि रूप ही होते है । सच्चे सुख की प्राप्ति श्र धर्म का प्रारंभ सम्यग्दर्शन से ही होता है । तत्त्वो का स्वरूप समझे धिना किसी भी जीवको सम्यण्दशंनहो जहीं सकता । अतः जो जीव त्वो का स्वरूप ठोक ठीक जोनते है उन्हीं के सम्पग्दशन होता है,अन्य के नहीं । बस तरवों के यथार्थ स्वरूप के जानने के प्रयत्न मे लगना ही सच्चे सुख के ६च्छुक का सुख्य कत्त व्य ठहरा । दोहा-सम्यग्दशन ज्ञान अरु चारिति शिवमग होय। तस्राथं श्रद्ांन जो, सम्यग्द्शन सोय ॥१॥




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