स्थानांगसूत्रम् | Sthananga Sutram

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ने अपने-अपने गण सुधर्मा को समर्पित किये थे क्योकि वे सभी गणधरों से दीर्घजीवी थे ।*९ आज जो द्वादशागी वरिद्यमान है वहु गणधर सुधर्मा की रचना है । १ कितने ही ताकिक श्राचार्यो का यह श्रभिमत है कि प्रत्येक गणधर की भाषा पृथक थी । इसलिए द्वादशागी भी पृथक्‌ होनी चाहिये । सेनप्रश्त ग्रन्थ मे तो आचार्य ने” यह प्रश्न उठाया द कि भिन्न-भिन्न वाचना होने से गणधरों में साम्भोगिक सम्बन्ध था या नहीं ? और उनकी ममाचारी मे एकरूपता थी या नही ? श्राचायंने স্নঘ ही उत्तर दिया है कि वाचना-भेद होने से सभव है समाचारी में भेद हो ! श्रौर कथचित्‌ साम्भोगिक सम्बन्ध हो ! बहुत से श्राधुनिक चिन्तक भी इस बात को स्वीकार करते हैं। श्रायमतत्त्ववेत्ता मुनि जम्बूविजय जी ने ^^ झावश्यकचूणि को श्राधार वनाकर इस तर्क का खण्डन किया है। उन्दोनि तकं दिया है कि यदि पृथक्‌-पृथक्‌ वाचनाओ के श्राधार पर द्वादशागी पृथक्‌ू-पृथक्‌ थी तो श्वेताम्बर और दिगम्बर के प्राचीन ग्रन्थो मे इस का उल्लेख होना चाहिये था । पर वह नही है । उदाहरण के रूप में एक कक्षा मे पढने वाले विद्याथियो के एक ही प्रकार के पाठयग्रन्य होते है । पढाने की सुविधा की दृष्टि से एक ही विपय को पृथक्‌-पृथक्‌ अध्यापक पढाते हैं । पृथकू-पृथक्‌ अध्यापकों के पढाने से विषय कोई पृथक्‌ नही हो जाता । वैसे ही पृथक्‌-पृथक्‌ गणधरो के पढाने से सूत्ररचना भी पृथक्‌ नही होती । श्राचा्य जिनदास गणि महृत्तर ने** भी यह स्पष्ट लिखा है कि दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात्‌ सभी गणधर एकान्त स्थान में जाकर सूत्र की रचना करते है। उन सभी के श्रक्षर, पद और व्यञ्जन समान होते है। इस से भी यह स्पष्ट हैं कि सभी गणघरों की भाषा एक सदृण थी। उसमे पृथकता नही थी । पर जिस प्राकृत भाषा में सूत्र रचे गये थे, वह लोकभापा थी। इसलिए उप्त मे एकरूपता निरन्तर सुरक्षित नही रह सकती थी। प्राकृतभापा की प्रकृति के अनुसार शब्दों के रूपो मे सस्कृत के समान एकरूपता नही है। सम- वायाग* श्रादि में यह स्पष्ट कहा गया है कि भगवान्‌ महावीरने श्रधंमागधी भापामे उपदेश दिया। पर अर्ध- मागधी भापा भी उसी रूप में सुरक्षित नहीं रह सकी । श्राज जो जैन श्रागम हमारे सामने हैं, उनकी भाषा महाराप्ट्रीय प्राकृत ह । दिगम्बर परम्परा के श्रागम भी श्रधंमागधी मे न होकर शौरसेनी प्रधान है, भागमो के अनेक पाठान्तर भी प्राप्त होते है 1१ १ जैन श्रमणो की श्राचारसहिता प्रारम्भ से ही श्रत्यन्त कठिन रही है। अपरिग्रह उनका जीवनब्नत है । अपरिग्रह महाव्रत की सुरक्षा के लिये श्रागमो को लिपिबद्ध करना, उन्होंने उचित नहीं समझा । लिपि का परिज्ञान भगवान्‌ ऋषभदेव के समय से ही चल रहा था 1६६ प्रज्ञापना सूत्र मे अठारह लिपियो का उल्लेख मिलता है ९३ १६ सामिस्स जीवने णव कालगता, जोय काल करेति सो सुधम्मसामिस्स गण देति, इदभूती सुधम्मोय सामिम्मि परिनिव्वुए परिनिव्वुता | “आवश्यकचूणि, पृ-३३९ १७ तीर्थकरगणभृता मिथो भिन्नवाचनत्वेषपि साम्भोगिकत्व भवति न वा ? तथा सामाचार्यादिकृततो भेदों भवति न वा ? इति प्रयने उत्तरम्‌--गणभृता परस्पर वाचनाभेदेन सामाचार्या श्रपि कियान्‌ भेक सम्भाव्यते, तद्भेदे च कथच्चिद्‌ माम्भोगिकत्वमपि सम्भाव्यते । --सेनप्रश्न, उल्लास २, प्रश्न ८१ १८ मूयगडगमृत्त -प्रस्तावना, पृष्ठ-२८-२० ९ जदा य गणहरा सब्वे पन्वजिता ताहे किर एगनिमज्जाए एगारस अगाणि चोहूमहि चोद पुव्वाणि, एव ता भगवता श्रतथो कितो, ताहे भगवतो एगपासे सुत्त करे (रं) ति त भ्रक्वरेहि पदेहि वजणेहि सम, पच्छा सामी जम्मं जत्तियो गणो तस्म तत्तिय श्रणुजाणति । भ्रातीय सुहम्म करेति, तस्स ॒महल्लमाउय, एत्तौ तित्थ होहिति त्ति''। --आवश्यकचूणि, पृष्ठउ-३३७ २०. समवायागसूत्र, पृष्ठ-७ है २१. देखिये--पुण्यविजयजी व जम्बूविजयजी द्वारा सम्पादित जैन श्रागम प्रन्थमाला के टिप्पण । २२ (क) जम्बृद्रीप प्रज्ञप्तिवृत्ति (ख) कल्पसूत्र १९५ २३ प्रज्ञापनासूच, पद १ ख--त्रिपष्टि-- १०२-९६ ३ [ १७ ]




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