अभिनवभारती -सन्जीवनभाष्य | Abhinavbharati Sanjeevan Bhashya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ६ ) दोनों फ्रेंच विद्वानोंकों ही नाट्यशास्त्रके प्रकाशनका श्रेय दिया जा सकता है। इनके द्वारा मिला कर नाट्यशास्त्रके अठारह अध्याह्रोंका--प्रा रम्भसे १७ वें श्रध्याय तक क़मबद्ध तथा २४ वें अध्याय का--प्रकाशन किया गया । कलेवरकी हृष्टिसे यद्यपि यह आधा नाट्चशास्त्र ही बनता है फिर भी जिन कठिन परिस्थितियोंमें उन्होंने यह कार्य किया उनको देखते हुए यह वहुत बड़ा कार्य कहा जा सकता है। तीसरे फ्रेंच विद्वान्‌ 'सिल्वां लेवी' हैं जिन्होंने भरत-नाख्यशास्त्रके विपयमें कुछ कार्य किया है । “सित्वां लेवी ने भारतीय रद्धमञ्चके विपयमें 'थियेटर इण्डियन' नामक লা ग्रन्थ १८९० में प्रकाशित किया। उन्होंने केवल १८ से २२ तक तथा ३४ इन पाँच अ्रध्ययोंका ही _कुछ विवेचन अपने ग्रन्थमें दिया है । परन्तु वह भी न अनुवाद ही है श्रौर न मूलका सम्पादन ही । ेल्‍ इस लिए विशेष महत्वपूर्ण नहीं कहा जा सकता है। १८२६ से लेकर १६६० तक पिछले १३४ चर्षोप्रें नाट्यशास्त्रके सम्पादन श्र प्रकाशन के क्षेत्रमें देशी और विदेशी विद्वानोंने मिल कर जो प्रयत्न किया है उसका यही संक्षिप्त विवर्ण है । भरत़के पूर्ववर्ती श्राचार्थ-- नास्यकला-विषयक उपलब्ध समस्त ग्रन्थोमे यद्यपि वतंमान भरत-नाटयशास् सवसे भ्रधिक प्राचीन ग्रन्थ माता जाता है किन्तु जिस प्रकार 'पारिनि! की 'भ्रप्टाध्यायी/ की रचनाके पहिले भी व्याकरणके अनेक श्राचार्य थे जिनका उल्लेख स्वयं पाणिनिने अपनी भ्रष्टाध्यायी में किया है इसी प्रकार भरत-नाट्चशास्त्रके पूर्ववर्ती अनेक नाट्याचार्योका उल्लेख भरतमुनिने स्वयं किया है 1 भरतमुनिके उल्लेखके अ्रतिरिक्त श्रन्य भी ऐसे प्रमाण हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि नाट्य-विपय्रक ग्रन्थ श्रौर उनके प्रणेता अनेक आचाय॑ भरतमुनिके पहिले हो चुके थे। इनमें से 'शिलालिन! और 'क्श्ाइव” नामक नट्सूत्रोंके रचयिता दो आचारयोका उल्लेख पाणिनिकी श्रष्टा- ध्यायी' में 'पाराशये-शिलालिक्यां भिक्षु-नटसूत्रयो: (४-३-११०) तथा कमंन्द-कृशाइवादिनि:! (४-३-१११) इन सृत्रोंमें किया गया है। ये नठ्सूत्र नाठ्यशास्त्रके मौलिक सूत्र रहे होगे। भरतके नाय्यशास्त्रके चन जानेपर उनका भी लोप हो गया यह्‌ श्रनुमान सहज ही किया जा सकता है । कोटल- रिलालिन श्रौर कृशाद्वके वाद श्री कोहलः मरतके पूर्ववर्ती तीसरे प्रसिद्ध नाट्याचायं ह । भरत-नाव्यशास्त्रमे उनका उल्लेख कई जगह श्राता है। नाट्यशास्वके श्रन्तिमि भ्रव्यायमें कोहल, वातस्य, शाण्डिल्य भ्रौर धूतिल इन चार प्राचीन नाटचाचार्योका एक साथ उत्लेख इस प्रकार किया गया है- “कोहलादिभिरेतर्वा वात्स्य-शाण्डिल्य-घुतिलै: | ~ ह एतच्छास्वं प्रयुक्त तु नराणां बुद्धिवर्धनम्‌ 11 अभिनवगशुप्तने अपनी टीकामे श्रनेक जगह: कोहलाचार्यके मतका उल्लेख किया है। जैसे प्रथमाध्यायमें [प० १३७| नान्‍्दीका विवेचन करते हुए 'इत्पेपा**कोहलप्रदर्शिता नान्‍दी उपपन्ना भवत्ति' दिया ই । छठे श्रव्यायमें [० ४१६] दशम इलोकमें नाट्यके रस, भाव प्रादि ग्यारह अज्




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