लोक धर्मी नाट्य परम्परा | Lok Dharmi Natya Parmpara

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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2 पौरिका ६ लोकधर्मी नाट्य परम्परा | सामविक लघु-प्रहसन, नादिका यम | प्रहसन स्वागं या नकल भाँड-भड़तो पेशेवर नो ह्वारा वयाया | | होली के श्रवसर पर वहुसपियो द्वारा पुरुषों द्वारा | | | स्त्रियो हरा. पुदषों द्वारा वालक-वालिकाओ्रो द्वारा | | | घार्मिक एतिहासिक लीफिकं (पौराणिक দাদ (मध्यकालीन एतिहासिक (किवदन्तियो पर पर भ्राधारित) घटनाग्रो परं प्राघारित) श्राधारित युगो से प्रचलित लोक-नाट्य परम्परा का श्रपना स्वल्प विकसित हौ कर एफ एसे ढंग पर श्रा गया है कि उसको रूढ़ कहा जा सकता है। इसलिये उसकी ध्रपनी विशे- पतायें भी ऋमदः उभर” सकी हूँ । लघु वाटिकाओ्रो श्रथवा प्रहतनो का रूप यद्यपि व्यव- स्थित नहीं है, पर लम्बे ग्रामीण ठरे के नद्यो में बहुत क्षं व्यवस्थित रूप दिखाई देता है । उनकी गठन श्रिघात्मक है--जिस्मे श्रभिनय, नृत्य श्रौर गीत तीनो फा प्रयोजित रूप गम्फित है। शास्त्र-सम्मत श्रभिनय के चारो श्रगो में शश्रादूर्व' श्रौर 'सात्विक को छोड़ कर झागिका श्र वाधिक्‌ का प्राघान्य लोक-नादयो में द्ृष्टव्य है। सकेप में स्पूल विशेषताओं पर निसत क्रम से विचार किया जा सकता है। १, भाषा और संवाद लोक-नाटकों की भाषा काव्यमयी होती है। चुफि ये नाटक सामूहिक श्रभिव्यक्ति के साधन हूँ झौर पद्यात्मक संवादों द्वारा समूह की कल्पना-शवित भावों को ग्रहण करने की सामथ्यं रखती है, इसलिये इनमें गद्य का प्रभाव कम ही होता है। गद्य का प्रयोग भाँडों के हास्यात्मक श्रभिनय भ्रयवा इतिवृत्तात्मक प्रसयों में फ्या जाता है | ऐसा गद्य भी प्रायः पद्यात्मक होता है, जहाँ शब्दों की लड़ियाँ एक दूसरे से गूथी हुई द्वुतगति से प्रागे बढ़ती है। पद्च-वद्ध सवादों की परम्परा मध्य काल फे पूर्वं से निरन्तर चली ध्रा रही है। लोक में उसका प्रभाव परम्परा से पोषित होता चला प्राया है । इसीलिये लोक-मानत पर उसको दाप तुरन्त पडती है । प्राय. देखा जाता है कि पद्च-बद्ध सवादों मे कयन की बारीफियाँ दर्शकगण उत्ती भाँति पकड़ते हूं जिस तरह सवेदनशील फलाकारों को रचनाग्रों के उत्कृष्ट भाव कुशल पराठकाण ग्रहण करते हूँ । ऐसे अनेक प्रंश इन नाठकों में होते हूँ, जो लोकगीतो फो घुन्ों में गायें जाते है शौर त्ोकनापा को पुरानों शब्द-योनना में श्रवगूढित होते हुँ) उन श्रज्ञों में साधारणीकरण को ततम्पूर्ण क्षमता




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