जैनेन्द्र की कहानियाँ भाग - 7 | Jainendra Ki Kahaniyan Bhag - 7

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Jainendra Ki Kahaniyan Bhag - 7  by जैनेन्द्र -JAINENDRA

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about जैनेन्द्र -Jainendra

Add Infomation AboutJAINENDRA

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
टकराहट ७ लीला--भ्राप भ्रपना काम करें | श्राप को बहुत काम हैं। में भ्राज ही लोट जाना चाहती हूँ। कैलाश---नहीं, मुझे मौका दोगी । मौका देने से पहले मुझे भ्रप- राधी बनाना न्याय नहीं है । भौर तीसरे पहर के समय थोड़ा भाराम. . . लीला--भ्राराम मुझे नहीं चाहिए । केलाद---( खिखखिलाकर ) तो भाई, मुझे तो चाहिए। में बूढ़ा हूँ | भौर यह कागजों का पुलिदा मेरा श्राराम है । ऐसी हालत में ,तुम इस बूढ़े भादमी पर श्रकृपा करोगी ? में जानता हूँ, तुम मुझे भ्रवसर देना चाहोगी | में, समय मिलते, बोलो, तुम्हारे कमरे की भोर भ्राञ ? देखना चाहता हूँ इस देहाती घर में तुमने भ्रपना भ्रमरीका कंसे सुरक्षित रखा हं । लीला-शाम भाप भ्रकेले हो सकते हें ? केलाश--देखता हूँ, तुम कठिन हो । तिस पर हृदयहीन मुझे कहा जाता हूँ । ( खिलखिलाकर हँसते हें। ) भ्रकेली मेरी शाम चाहती हो, तो वह सही । [ लीला इस पर विना कुछ बोले चली जाती हे | | केलाश-- रामदास, लो भाई, श्रव भ्रा जाश्रो । [ रामदास पास झाकर पढ़ना चाहता हैँ। कंलाश तकिये पर भुक कर मानो जरा विश्राम करते हें । ] दूसरा दृश्य [ सन्ध्या, नदी का किनारा । कलाश्च भरौर लीला । ] केलाश---चली चलोगी, या यहाँ बेठें । (नदी-तट की एक चट्टाव की भोर बढ़ते हुए) भ्राभो, बैठो । [ केलाश बेठते हें । जरा नोचे को झोर लीला भी बेठ जाती है। ]




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now