जैनेन्द्र की कहानियाँ भाग - 7 | Jainendra Ki Kahaniyan Bhag - 7
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
10 MB
कुल पष्ठ :
226
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)टकराहट ७
लीला--भ्राप भ्रपना काम करें | श्राप को बहुत काम हैं। में भ्राज
ही लोट जाना चाहती हूँ।
कैलाश---नहीं, मुझे मौका दोगी । मौका देने से पहले मुझे भ्रप-
राधी बनाना न्याय नहीं है । भौर तीसरे पहर के समय थोड़ा भाराम. . .
लीला--भ्राराम मुझे नहीं चाहिए ।
केलाद---( खिखखिलाकर ) तो भाई, मुझे तो चाहिए। में बूढ़ा
हूँ | भौर यह कागजों का पुलिदा मेरा श्राराम है । ऐसी हालत में ,तुम
इस बूढ़े भादमी पर श्रकृपा करोगी ? में जानता हूँ, तुम मुझे भ्रवसर
देना चाहोगी | में, समय मिलते, बोलो, तुम्हारे कमरे की भोर भ्राञ ?
देखना चाहता हूँ इस देहाती घर में तुमने भ्रपना भ्रमरीका कंसे सुरक्षित
रखा हं ।
लीला-शाम भाप भ्रकेले हो सकते हें ?
केलाश--देखता हूँ, तुम कठिन हो । तिस पर हृदयहीन मुझे कहा
जाता हूँ । ( खिलखिलाकर हँसते हें। ) भ्रकेली मेरी शाम चाहती हो,
तो वह सही ।
[ लीला इस पर विना कुछ बोले चली जाती हे | |
केलाश-- रामदास, लो भाई, श्रव भ्रा जाश्रो ।
[ रामदास पास झाकर पढ़ना चाहता हैँ। कंलाश तकिये पर भुक कर
मानो जरा विश्राम करते हें । ]
दूसरा दृश्य
[ सन्ध्या, नदी का किनारा । कलाश्च भरौर लीला । ]
केलाश---चली चलोगी, या यहाँ बेठें । (नदी-तट की एक चट्टाव
की भोर बढ़ते हुए) भ्राभो, बैठो ।
[ केलाश बेठते हें । जरा नोचे को झोर लीला भी बेठ जाती है। ]
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