विवेक और साधना | Vivek Aur Sadhna

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Vivek Aur Sadhna by केदारनाथ -Kedarnath'

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१७ फिर, हमारी यह भी ख्याति हं फि भारतवर्पके खोग संसारके सव लोगोक्रौ अपेक्षा अधिक धर्मपरायण और धर्मको दुनियाकी भीतिक वस्तुओ और वड़प्पनसे ज्यादा महत्त्व देनेवाले हें। ससारके सब विपयो ओर कर्मोकी कीमत हमं केव भौतिक लाभ-हानिके आधार पर नही अकते, परन्तु हमारे किमे यह्‌ कहा जाता हं कि हम अुनके आध्यात्मिक, घारमिक या नेतिक परिणामोके अनुसार मूल्याकन करने हे । मारे प्रति दुनियावाल्ैका यह्‌ जो खयाल ই, আনন শী উদ নন होता हे । जिस प्रकार हमे अपनी सस्क्ृतिके वारेमे प्राचीनता व श्रेष्ठताका जीर अपनी वमभावनाका तीत्र रूपमे भाव है, और जिस भावका নঙ্গা भी । यिस नयेके जौरमें ह्म यह भी कह डालते हे कि अँसे मामलोमे तो हम जगतके गुर हे, दूसरा कोओ देश हमें कुछ नया सिखा या दे ही नही सकता, अआलटे, दूसरी सस्क्ृतियोमे भी कुछ लेने लायक हैँ, यह खयाल ठी हममे घुत्ता हुआ वडा भारी दोप है, जो कुछ बाहरसे आ गया है, असे निकाल देनेकी हमारी कोणिय होनी चाहिये। अपनी दृष्टिमे हमारी जितनी अधिक महिमा होने पर भी राष्ट्र या कौमकी हैसियतसे हमारी कैसी दवाजनक और कंगारू हारूत है! कंसा परतंत्रता और युलामीसे भरा हुआ हमारा सदियोका जितिहास है | कितनी विषमता, दरिद्रता, सकुचितता, भेददृष्टि और अववुत्व हममे हँ ! कितने छोटे-छोटे ओक-दूसरेसे सदा छडते रहनेवाले राज्य, पथ और जात-पात हे। बलवानके हाथो दुर्व पर कैसा अत्याचार, दीन और स्त्री-जातिका कैसा दरकन युगों तक निरन्तर होता रहा हे! अगर वृद्धि, सस्कारिता और घर्मभावनामे हम बहुत अपर আত ओर आगे वड़े हुभे द, तौ हमारा सार्वजनिक जीवन -- राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, स्वास्थ्य वगेरा सभी क्षे्रोमे -- अितना ज्यादा कगारु क्यो ह? घमं, अये जीर कामका वहत स्पण्ट यौर सूक्ष्म दर्शन पाये हुओ समाजका जितना पतन हो ही कंसे सका ? शायद




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