भगवतीचरण वर्मा के उपन्यासों में कथाकला | Bhagawati Charan Verma Ke Upanyaso Me Kathakala

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Bhagawati Charan Verma Ke Upanyaso Me Kathakala by वंदना श्रीवास्तव -Vandana Shrivastav

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भगवतीघरणवर्मा फे उपन्यासों में कव्ा-कला / < पर इलाचंद्र जोशी की नियुक्ति हो गई। रेडियो की नौकरी से इस्तीफा देने के बाव १६९७ से १६७३ तक का समयं वर्माजी के साहित्यिक लेखन के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण रहा। इस अवधि में उन्होंने 'भूले-बिसरे चित्र (१६५६), 'सीधी-सच्ची बातें” (१६६८) और 'प्रश्न और मरीचिका” (१६७३) जैसे वृहत उपन्यास पूरे किये। जीवन के अन्तिम दशक में वर्माणी ने कई मनोरजक कहानियाँ लिखी। आकाशवाणी की नौकरी के दौरान कुछ कविताओं के अतिरिक्त “कर्ण”, द्रोपदी' आदि काव्य-नाटक भी लिखे! कविता मेँ एक आल्मकथात्मक प्रबंध भी लिखना प्रारंभ किया। लेखन की जिस उक्तट लालसा को वे आर्थिक कठिनाइयों के कारण पूरा नहीं कर पाये थे, उसे वे पूरा कर लेना चाहते थे। १६६१ में 'भूले-बिसरे-चित्र' के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुआ। सन्‌ १६४४ में “अपने खिलौने” उपन्यास की रचना की। वर्माजी का कथाकार वाला एक और रूप है-- छोटी कहानी को वृहत्‌ रूप देने का! वह फिर नहीं आई” उपन्यास तथा पैसा तुम्हें खा गया” नाटक इस क्षमता के परिचायक्क हैं। उपर्युक्त उपन्यास तथा नाटक पहले कहानी रूप में ही थे। इसमें वर्माजी ने विषय और भाव-परिवर्तन न करके रुप-विधान परिवर्तित किया है। 'भूले-बिसरे चित्र” उपन्यास के बाद “वह फिर नहीं आई” उपन्यास लिखा जिसका उनकी कमजोर कृतियों में शुमार किया जाता है। १६६२ में प्रकाशित उपन्यास 'सामर्थ्य और सीमा' पूर्णरुपेण नियतिवाद का पाठ पढ़ता है। वर्माजी नियति पर बहुत विश्वास करते थे, जीवन के विकास में परिस्थितियों का योगदान उनके जीवन का अनुभूत सत्य था-- “मैं नियतिवादी हूँ और मेरे नियतिवादी होने के सुस्पष्ट कारण भी हैं। मैं जो कुछ हूँ, परिस्थितियों ने मुझे यह बनाया है। और यह परिस्थितियाँ मेरे हाथ में नहीं थी। एक मध्यवर्गीय परिवार में मेरा जन्म हुआ जिसकी निजी मान्यताएँ थीं, परम्पराएँ थीं और उसके अपने निजी संस्कार थे। यह परम्पराएँ, मान्यताएँ और सस्कार मेरे अविच्छिन्न अंग हैं। फिर मुझे जन्म से ही कुछ प्रवृत्तियों मिली और उन परिस्थितियों में जिनमें मैं बिना अपने प्रयत्न के या अपनी इच्छा के पड़ गया था, मेरी उन प्रवृत्तियों का विकास हुआ, मुझे एक ऐसा अहं मिला जो किसी के आगे झुक न सकता था और उसने मुझे जीवन-भर सघर्षों में रत रक्खा।१ वर्माजी ने अपने जीवन में कठिन आर्थिक समस्याओं का सामना किया था, जीविकोपार्जन के लिए जगह-जगह भटके थे। इसी कारण उनके उपन्यासों में नियतिवाद के प्रति अटूट आस्था किसी न किसी रूप में विद्यमान है। एक सभीक्षक ने तो यहाँ तक कह डाला है कि- “भगवती बाबू भाग्यवादी हैं, बल्कि भाग्यवादियों में भाग्यवादी हैं। , . नियतिवादी होना भगवती बाबू की नियति है। कौन जाने वही सही हों।”” इसी दशक में 'थके पॉव', 'रेखा', 'सीधी सच्ची बातें' और 'सबहिं नचावत राम गोसाई'- जैसे उपन्यासों का सुजन हुआ। इस श्रृखला का अन्तिम महत्वपूर्ण उपन्यास प्रश्न ओर मरीचिका” १६७३ में प्रकाशित हुआ। जीवन के अन्तिम और आठवें दशक में भी वर्माजी लेखन के क्षेत्र में अत्यन्त सक्रिय रहे हैं। सृजनात्मक स्तर पर इस अवधि में उनकी कृतियोँ पहले के लेखन के मुकाबले में ज्यादा आश्वस्त नहीं कर पाती हैं। ऐतिहासिक उपन्यास्त 'युवसज चूँडा” इनकौ मृत्यु के पहले प्रकाशित हुआ और 'चाणक्य' मृत्यु के बाद। जीवन की सान्ध्य बेला में इन्होंने आत्मोपहास भाव से आत्मकथापरक उपन्यास 'धुप्पल” लिखा कहि न जाय का किए इनके द्वारा लिखी गई आत्मकथा है जिसका प्रकाशन अभी तक नहीं हुआ है। भगवतीचरण वर्मा जितने सफल उपन्यासकार हैं, उतने ही सक्षम कहानीकार भी हैं। उनमें कहानी गढ़ने की अद्भुत क्षमता है। इनके तीन कहानी-सग्रह बहुत पहले प्रकाशित हुए थे-- 'इन्स्टालमेंट', १ गंगव्तीयरण वर्मा (एक स्वर्‌) कुसुम कार्न्नेव पृ० ४ रे वर्मा হত श्रीमती) इन्दु शुक्ला पृ० ४३




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