आभास और सत | Abhas Aur Sat

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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य्‌ आभास ओर सत्‌ इस सिद्धान्त के विस्तृत प्रयोग का कोई विशे प्रयोजन नहीं है । एक वस्तु रंगीन है, परन्तु उसके रंग प्रत्येक देखने वाले के लिए एक-से नहीं, और कूछ को छोड़कर, अन्यों को वह विल्कुल रंगीन नहीं प्रतीत होती । तो वह रंगीन है या नहीं ? और आँख जिससे सम्बद्ध होकर गुण प्रकट होता है--के पास क्या स्वयं रंग है ? स्पप्ट है कि वह्‌ गृण उसमे तव तक नहीं माना जा सकता, जव तक उसको देखने वाली दूसरी आँख न हो । अतः कोई भी वस्तु यथार्थतः रंगीन नहीं है, रंग केवल उस वस्तु का गुण प्रतीत होता है जो स्वयं रंगहीन है। इसी परिणाम पर पहुँचने के लिए सर्दी और गर्मी को भी लिया जा सकता है! कोई वस्तु हमारी त्वचा के एक भाग को ठंडी प्रतीत होतीहैभौर दूसरे भाग को गरम | त्वचा के सम्बन्ध के अभाव मे, उसमें एसा कोई मृण प्रतीत नही होता । और वैसे ही, तक॑ के द्वारा, यह सिद्ध हो सकता है कि त्वचा में वह गुण (सर्दी या गर्मी ) नहीं है। अतः यह गुण वस्तुत: किसी में भी नहीं है। इसी तरह जो स्वन्‌ या शव्द सुनाई नहीं पड़ते वे कदाचित्‌ ही यथार्थ मानी जाएँगी। उनको सुननेवाला कान होता है, जो स्वयं सुना नहीं जाता, और जो सदा आवाज को सुनना भी पसन्द नहीं करता 1 गन्ध और स्वाद का तो हाल इससे भी बुरा है, क्योंकि ये दोनों हमारे हप॑ तथा विपाद से ओर भी प्रत्यक्ष सम्बन्ध रखते हैं । यदि स्वाद की प्रतीति मुख में होती है, तो इसका अभिप्राय क्या यह है कि स्वाद उसका एक गुण है ? क्या नाक के अभाव में गन्च संभव है ? परन्तु, स्वयं नासिका या जिह्वा की गन्ध अथवा स्वदि कौ प्रतीति किसी अन्य नासिका या जिह्वा के विना संभव नहीं, ओर न गंव या स्वाद को इन इन्द्रियों का गुण ही कहा जा सकता है, यद्यपि वे उनको यदा-कदा भोगते जरूर हँ 1 जब हम कहते हैं कि वस्तु अप्रिय ই অনা अमुक वस्तु प्रिय है, तो हम नि:संकोच उस वस्तु को ही प्रियता या अप्रियता का आधार मान ठेते है परन्तु वस्तु में प्रियता या अग्रियता कैसे हो सकती है? क्या कोई भी वस्तु यथार्थ त: और स्वयं ही सुखद या दु:खद है ? क्या मैँ मी इन चंचल विशेषणों (सुखद आदि) का चिरस्वामी कहा जा सकता हूँ ? परन्तु , विस्तृत विवे- चन के आग्रह से पाठकों को श्रात्त करना यहाँ अभीष्ट नहीं । उपय्‌ कत तर्क से हम सर्वेत्र यही देखते हैं कि वस्तुओं में जो विक्ृत (अमौलिक) गृण होते हैं वे किसी-न-किसी इन्द्रिय-विशेप के लिए ही होते हैं और उन इन्द्रियों में भी वे गुण उच वस्तुओं के लिए ही होते हैं, अन्यों के लिए नहीं । वस्तुत: रूप, रस, गत्व आदि की अनुभूतियाँ 'अहम्‌' के ही प्रसारुक्षेत्र में आती हैं और उक्त गुण वस्तुतः इसी प्रसार-परिधि की केन्द्रभूत सत्ता के सम्वन्धों पर आश्वित विशेषण-सात्र हैं। सत्य केवल वह है जिसका प्रसार हज ! अपनी आन्तरिक या निजी अनुभूतियों के तथ्य, जिनमें स्वप्न तथा म्ांतिरयाँ भी कामिल की जा सकती हैं, इसके प्रमाण है; इनसे स्पप्ट है कि अनुभूत्ति विना विपय




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