अनुप्रेक्षा प्रवचन भाग - 4, 5, 6 | Anupreksha Pravachan Bhag - 4,5,6

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अनुप्रेक्षा प्रवचन चतुर्थ भाग ११ इसके बाद तत्काल निकल जाता है । जब सब घातिया कर्म अन्तर्मुहुर्तकी स्थितिमे हो गए तब पूर्णतया योगनिषेध हो चुकनेपर १४ वे गुणस्थानमे ये श्ररहत प्रभु पहुंचते है और उनके अन्तिम दो समयोमे सभी प्रकृतियोका नाश हो जाता है, और वे सिद्ध हो जाते है, तब वे निकलपरमात्मा कहलते है । ` | निकलपरमात्म्यका परिचय--निवलपरमात्मा, अशरीर सिद्ध भगवान ऊद्धंगतिसे लोकके श्रग्रभाग तक पहुच जाते है । अब वे सदाकाल अवस्थित है। सिद्ध भगवानकी स्तुति मे कहते है कि जो “ एक माहि एक राजे, एक माहि अनेकनो, एक अ्नेकन की नही संख्या, नमो सिद्ध निरज्ञनो” । ऐसा पढ तो जाते है पर अर्थ याद न होने से कुछसे कुछ भी पढ लेते हो, एक को जगह अनेक, अनेक की जगह एक । श्रव देखिये इसका अ्र्थ कितना मामिक है और प्रभुके अंत स्वरूपको बताने वाला है। ये सिद्ध भगवान निरञ्जन है, इनके अब अज्ञन नही रहा | जैसे कि अज्ञन खूब लिपटकर ही लग सकता है, दूर-दूर रहकर नही लगता, ऐसे ही ये शरीर द्रव्यकर्म ये आत्मासे लिपट कर रह रहे है इसलिए इन्हे अश्जन कहते है । जहाँ शरीर, कर्म, विकार आदि कुछ नही है ऐसे प्रश्च॒ुकी निरज्ञन कहते हैं । ये एक माहि एक राजे है-श्रर्थात्‌ प्रत्येक सिद्ध एकमे एक ही रह रहे है। जितने भी सिद्ध हुए है वे सभी अपने आपके प्रदेशमे ही केवल रागादिक रूप परिणम रहे है। एकमे दूसरेका प्रवेश नही है, वहाँ परिणमनकी वात देखिये, अनुभवकी बात देखिये। प्रत्येक सिद्ध अपने आप के एकमे ही वह एक है, वे प्रत्येक सिद्ध एकमे एक ही बिराज रहे है। यद्यपि जिस क्षेत्रसे कोई एक सिद्ध हुआ है उसी क्षेत्रसे उसी जगहसे अनन्त सिद्ध हो गए और वे जाकर वहीं विराजमान है जहा कि कोई एक हो, लेकिन एक ही जगहमे अनन्त सिद्ध रहने पर भी प्रत्येक सिद्ध अपने आपके स्वरूपमे अपने ज्ञानानन्दको भोग रहे है, किसीमे किसी दूसरेका परिणमन, प्रवेश नही है, अतएव प्रभ्च॒ु एकमे एक ही राज रहे है। और एकमे अनेक राज रहे है सिद्ध प्रभु । जहाँ एक सिद्ध प्ररु है वही ्रनन्त सिद्ध भगवान है । एकमे ग्रनेक बिराज रहे है। और, वहाँ एक अनेककी कोई सख्या नही है, सख्यासे परे है ना, ग्रनन्त है ना, ग्रनेकमे कितने भ्राये ” उसका काई उत्तर नही है । ग्रन्तरहित, यो भी एक श्रनेककी संख्या नही ই, সীহ यदि सिद्धमे, भगवानमे अन्त स्वरूपका ध्यान किया जाय तो वह तो एक विशुद्ध चेतन्यमात्र है। और, यदि बडी तनन्‍्मयतासे सिद्ध प्रभुकी उपासना कर रहे हो तो उस उपयोगमे तो विशुद्ध चेतन्यभाव ही समाया हुआ है, उसकी सीमा नही, उसकी व्यक्ति नही । उसमें एक अनेककी गिनती नहीं । यो भी एक अनेककी सख्या अब नही रही । कम क्षय सिद्ध व सहजसिद्ध प्रशुकी उपासनाका अनुरो६--ऐसे निरक्ञत सिद्ध भगवान




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