वैदिक इंडेक्स भाग २ | Vedic Index Part 2
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
19 MB
कुल पष्ठ :
580
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)पुरो-द्धित || (६). ` [ पुरो-दित
~~~.
स्सिमरर्य का विचार है क्ति राजा स्वयं सी अपने लिये पौरोहित्य-कर्म कर
सकता था, जैसा कि उस राजा 'विश्वन्तर! के उदाहरण से स्पष्ट है जिसमे
श्यापर्णों' की सहायता के बिना ही यज्ञ किया थार और यह भी कि
पुरोहितों का चाद्य होना जाचश्यक नहीं था, जेसा कि देवापि और शन्तनुं
के उदाहरण से व्यक्त होता दै। किन्तु इन दोनों में से कोई भी विचार
उपयुक्त नहीं प्रतीत होता । इसका कहीं भी उल्लेख नहीं कि विश्वन्तर ने
बिना पुरोहित के ही यज्ञ किया था, जब कि देवापि को निरुक्त* के पूर्व
राजा स्वीकार ही नहीं किया गया है, और ऐसा मानने के लिये भी कोई आधार
नहीं कि निरुक्त म व्यक्त यास्क का यह विचार ठीक ही दे ।
गेह्डनर* के अनुसार पुरोहित आरम्भ से ही यज्ञ-संस्कार के समय
सामान्यतया अधीक्षक की भाँति ब्रह्मनं पुरोहित के रूप में ही कार्य करता
था। अपने इस विचार की पुष्टि में आप हन तरथ्थ्यों का उद्धरण देते हैं कि वसिष्ठ
का एक पुरोहित और एक ब्ह्मन** दोनों ही रूपों में उल्लेख हैं : शुनःशेप
` के यज्ञ में इसने ब्ह्मनू*९ के रूप में कायं क्रिया था, किन्तु सुदास् का पुरोहित
था; ब्रहस्पति को द्वो का पुरोदितञ और লন दोनों कहा गया है;
चसिष्ठ-गण, जो पुरोहित हैं, यज्ञ के समय बहान् के रूप में भी कार्य करते
* आदिटग्डिशचे केवेन १९५, १९६ । ¡ ९८ ऋग्वेद ७. ३१, ११। किन्तु इसका
33 ইনইম ब्राक्मण ७. २७ ; मूइर : संस्कृत | ब्रह्मन् से कुद अधिक अर्थं माननेकी
टेक्स्टस, ५, ४३६) ४४० । | आवश्यकता नहीं ।
|
রা 1
+ ऋग्वेद १०. ९८। | १ छेतरेय शाह्मण ७. १६, १. शाह्वायन
२, १०। , | शीत सूत्र १५. २१, ४ ।
্ उण पु २, १४४; २, १५५) तु ও হাসান शनौ ते सूत्र १६. ११. १४ ।
33 ऋग्वेद २. २४, ९; ऐतरेय ब्राह्मण
३२. १७, २; तैत्तिरीय ब्राह्मग २. ७,
१, २; शतपथ ब्राह्मण ५. ३, १, २;
शाह्यायन श्रीत सून, १४. २३, १।
* ऋग्वेद १०. १४१, ३१; कौपीतकि
ब्राह्मण ६. ६३२; शतपथ ब्राह्मण १.
७, ४, २१५ ; शाङ्घायन श्रीत सूत्र
४. ६, ९।
की० पिशलू : गो० १८९४, ४२०;
हिलेब्रान्ट रिचुभरू-लिथ्रेचर, १३१ ।
ऋग्वेद १. ९४, ६, यह सिद्ध नहीं
करता कि पुरोहित एक “ऋत्विज? था;
হু কনক इनना ही व्यक्त होता है कि
वह अपनी इरच्छानुसार ऐसा वन
सकता था । पु
४ ऋग्वेद १०. ५५०, ५।
(४
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