स्वाध्याय सन्दोह | Swadhyaya Sandoh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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শর্ট শি ३ आत्मा अविनाशी है ओड्म | अपरश्यं गोपासनिपद्यमानसा च परा च पशथ्ििभिश्थरन्तरम । म सध्रीची स चिपृचीवेसानच्रा वरीवर्ति भुवनेष्वन्त ॥ ऋ० १६०७३ (अ्रनिषद्ममानम ) श्रविनोशी, (आ) सीवे, आगे (च) श्रीर (परा) उलटे, वापसी (च) भी ( पथिभि. } मागां मे ( चरन्तम्‌ ) विचरण करने वाले, व्यवहतर्‌ करने वाले ( गो-पाम्‌ ) इन्द्रियों के स्वामी को ( अपश्यम्‌ ) मैने ठेखा है, श्रनुभव किया है, जान लिया है (स.) वह इन्द्रिय-स्वामी ,(सप्रीचीः) सरल दशातओं को और (सा) वहीं ( विपूची' ) विषम दशाओ को ( वसान.) धारण करता हुआ ( युबनेषु+श्न्त ) लोको क तरीच ( श्रा~+-वरीनत्ति ) पुन पुनः श्राता रहता है | टस छाटे से मन्त्र में कई बानें कही गई हैं-- (१) श्रात्मा को वहा गोपा? कहा गया है। गोपा का अर्थ उन्द्रिया का स्वामी है'। श्रथति आत्मा टर्िया से मिन्न है । टन्ठरिया आत्मा नहीं हैं, वरन्‌ वह इनका स्वामी है । गोपा का एक श्र्थ 'इकियो का रक्षक! भी होता है | इन्द्रिया तभी तक शरीर मे काव्य क्ती ह, जव तकं श्रात्मा शरीर में रहता है। विचार से देखा, म्बामा क लिए वेट ने रक्षक होने का विधान कर दिया है | (२) उच्धियो के श्रात्मा-्पन का खण्डन करके वेट श्रात्मा को श्रनिषद्यमान/न्‍नष्ट न होने वाला बताता हैं | इन्द्रिया विनाण। हैं, शरीर भी बिनाश को प्रास हो जाता ह किन्तु श्रात्मा झ्निपद्रमानस्ञ्रविना शी है ग्र्थत शरीर नाश के साथ आत्मा का नाश नहीं होता | इच्ठियो के विकार से शआात्मा नष्ट नहीं होता | इसी शब्द वो मन में रखते हुये ब्रह्माउद्या के पौरगत आचार्य याशवल्क्य ने बडे प्रन्‍ल शब्दां म कदा-- “अझ्रविनाशी वा अरे अयमात्मा अनुच्छित्तिधम्मा”? (बृहद० 5५१४) গ্রহ मैश्नेथ ! यह आत्मा अविनाशी है, इसका उन्छेद कभी नरी তালা | यदि आन्या को अनित्य माना जाये ता दो छडे भारी दोप आते हैं, श्रान्मा को नित्य माने बिना जिनका समाधान नहीं है सकता । पतला तो यह कि श्रात्मा को अनित्य मानने का शअ्रर्थ & कि शरीर वी उन्पत्ति वे. साथ श्राला की भी उदन्नि हातीं > | उम श्रवन्थाम प्रश्न रोता? क्योकोई दणि के धर उन्न हआ ? क्यों कोई ऐस्स्येट्सग्पत्ति सपन्न दशा में उसने हुआ ? क्यों कोई श्र गविक्ल उन्यन्न होता है ? क्यों किसौ वो सुद्ौल सुन्दर शरीर मिलता हैं ? मानना पडता हैं कि ट्स शेर से पहले कोई तत्व एसा था, লিক কমা करा पल उने णेना मिलता ॐ | निना वास्ण झे भले हुरे शरीर के साथ सयाग से झेने वाले सुस्त ढु भोगे क्र नाम ह-आक्ता स्थागमच्न क्यि को प्रात करना | दूसय दोष है--क्ृतद्ानच्क्यि का साश | विनाशी ग्रासा शरीरूविनाश के साथ दो नष्ट हो जाना चाह्यि। अन्त के कर्म्मा का फल मोगे নিলা श्रात्मा नष्ट हो गया यट झ्व्यवस्था है, किन सारम्‌ मैन व्यस्था है। श्रत इस युक्तिविझद्ध बात को मानो निरस ऋूगने के लिये वेट ने आत्मा को य्रनित्प्रमान क्षय है| ग्रात्मा के अविनाशित्य मानने से ससार रचना हा प्रयोजन भी सिद्ध हो जता डे । इस झआामभ्या के क्र्मी का फल देने वे लिए यर जगन्‌ र्ना गया | 1 (০)




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