अकविता और कला - सन्दर्भ | Akavita Aur Kala Sandarbh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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नुमव वी है । वयोविः वस्‍्पता महा व्यक्ति को परीड़ाओ से मुक्त करती है। ; प्रकार व्यक्ति-बद्ध पीड़ाओ से मुक्ति प्राप्त करने की अनुभूति कल्पना के ध्यम से व्यक्ति को उच्चतर स्थिति में ले जाना है । यह प्रक्रिया अकविता - लिए निराघार हो गयी है । उससे भम्बद्ध तीसरा क्षण अकविता के लिए गैर भी अनावश्यक हो यया है। कविता मे अब “माव सम्पादन” करना पर्ध का प्रयास भासित होता है। तीसरे क्षण की 'णब्द साधनाः, वाटश्छट, र्व-परम्परा का आग्रह एवं एक प्रकार कं पितिः का सद्ष्य सभी दुसरे रा के निर्वेववितक होने वी प्रक्रिया साहित्य को जी एवं मौपचारिक पवरथा फी ओर साते हैं। तथाकथित नयी कविता में इस आग्रह-रक्षा को रिणति यह हुई कि थह कला के पहले ओर तीसरे क्षण के बीच मूलती ही | इस सन्दर्म में कला का दूसरा क्षण हो अंतिम एवं महत्वपूर्णं क्षण गता है । प्रयभानुभूति के धक्के मे मुक्त होकर व्यवित इसी क्षण में निर्वेयवितिक शीता है मोर तदाकारिता मे मुक्त मन के ततव बै साय तटस्यता का रख से उपयुक्त लगता है । अवविता स्वाभाविक कविता वी दिशा है । इसे पीढियो के संघर्ष से गोऽना भूल दोभी, क्थोदिः यह विमी दायित्य कैः प्रतिवद्ध स्थिति से भुक्त र-निस्‍्म॑ंग है । नई कविता की संवेदनशीलता ओर सौंदर्य हप्टि के चमत्कारिक वम्व-संपुजन से इसबो सत्ता विलग है । इसका दस्तु जगत कवि के एकदम नेबट है और कार्डियोग्राम के बौसावे में टूटली हुई लकीरों वी तरह खंडित है | अनिवद्ध केला बी भाति अकविता राजनीति के भ्रष्ट प्रतिमानों से भुक्त £। यह विसी पूर्वापर दार्शनिक मान्यताओं के प्रति आस्थावान भी महीं है । रवो दर्णेन भयायं षौ आदम्बर विहीन अमिव्यस्जनामे जुष हुआ हो भवना 1 अभी कविता बी शकित चुदी नही । इसलिए इसके सह विकास में अनेक सम्मावनाएँ निहित है । बच्य के अनेक आयाम इसे मिल जायेंगे । भाषा, फार्म और बयने वी स्वामाविक संगति अवविता के लिए आजतक বী “बविता' और उससे सम्दन्पित प्रतिशुतियों से ऊपर नये क्षेत्र जी तताश है / अगर ऐसी बवदिता গত के दरोव आरर भीवुद्ध ब्यश्जित बरती है ठो वह उसकी तात्वालीन उपलब्धि ही है जो भविष्य में अनुपलब्धि भी ही सकती है | बविता या अ्रथ्ठ सईंव छतवर आता है। अकविता में इससे अवर बोई अपवाद होने नहीं जा रहा है । सिषे इतना स्पष्ट है कि सापारणा और असाधारण में अवविता कोई केद नहीं बातो ॥ जिसे दिछत्री बदिता ने असाधारण अनुधुति बहा- दह आज जो मन स्थिति दे लिए साधारण हों गदौ और दोनो तरह की स्थितियों मे केई-प्रदेद के प्रश्न पर झआाज वा व्यक्त अपना सिर नहीं शपाता। उसे देंच्ारिप भान्ददाओ का दास बनते से मो हुछ्य झएलग्इ नहीं होता । पतले झे हो उमशी दोशे दर इस तरह की अजेक




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