हरिहर - उपासना की परम्परा तथा मध्यकालीन हिन्दी - भक्ति - काव्य | Harihar - Upasana Ki Parampara Tatha Madhyakalin Hindi - Bhakti - Kavya

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Harihar - Upasana Ki Parampara Tatha Madhyakalin Hindi - Bhakti - Kavya by क्षेत्रपाल - Kshetrapal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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8 था । दूसरी और ब्ार्य संस्कृति यज्ञ-प्रधान थी, जिस्म दैवाँ का बाहुल्य था । ऋग्वैद मैं एक स्थल पर इनकी संख्या लैंदीस* और ভু स्थल पर्‌ निन्यानवै बता गई है ।' रक अन्य मन्त्र कै अनुसार निन्यानवै दैवता स्वर्ग मैं, निन्‍यानवै प्रथ्वी पर और निन्यानवै जल(वायु) मैं रहते हैं | यह संख्या तीन हना तीन सौ उन्तातीस तक ईन गयी है ।४ग्रथववेद तथा काग ঈ तीस संख्या का समर्थैन किया है ।*ऋग्वैद ( १1१३६।११) कै त्रिधा विभाजन कै आधार पर यास्‍्क मै दैवाँ कौ पृथवी स्थानीयः अन्तरि या मध्यस्थानीय श्रीर्‌ यौस्थानीयश्तीन वर्गौ ४ विभाजित करते हुये कहा है কি उनकै पूर्ववती नैरुक्तं कै त्रनुसार्‌ दैवता कैवल तीन ई - पृथवी पर्‌ त्रशिनि+ अन्तिक र्व वायु या इन्द्र और यौलौक सूर्य | परन्तु इस दैवमएडल मैं बहुत-सै दैवता सैसे है, जिनका पारस्परिक सम्बन्ध स्थापित किया गया है या उनर्ग समान विशेषार्थ श्रारौपित हुईं हैं । उषसु, सूर्य स्वं ऑग्गनि कै कुछ गुणा समान ई जैसे ज्यौतिष्मचा, अन्धकार का निरसन श्रौर्‌ प्रात कालीन आविभषि । रुक दूसरे से पार्थक्य उस अवस्था मै গা শী কল हौ जाता है, जब विभिन्‍न दैवता रक ही प्राकृतिक दुश्य या घटना कै विभिन्‍न पक्षाँ सै उत्पन्न वतायै जातै ई । सामान्य महता कै कृ कार्यं प्रत्थेक महान्‌ दैवता करता & ओरौर्‌ लगभग दस-बा रह दैवता दौनाँ लौकौं की पुष्टि कतै वतायै गयै ई तथा नरै भी अधिक दैवताओँ तै सूर्यका त्रविभषि कर्‌ उरै आकाश ध स्थिर किया है अथवा उसके लिप पथ प्रशस्त किया है । মালা दैवता पृथवी त्रौर्‌ प्रकाश कै विस्ताएक ई तथा नैक दैवता ८ पूर्य, सविता, पूषा. इन्द्र, पर्जन्य, ग्रादित्यगएा) षट्‌ श्रौर्‌ श्रचर्‌ सभौ १, ऋग्वैद+ ३।६।६ २, बढ़ी, ८।३५॥३ ही १॥१३६। ११ ही, १।३४।११, १।४५।२) १८।३५।३ ; ८।३६।६ ॑ अरर्व० १०।७।१३१ शतपथ ४।५।। २; ११।६।३।५ নল ७1१४ से ६1४३




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