प्रकृति पुत्र | Parkriti - Putra
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
10 MB
कुल पष्ठ :
272
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about बाबूसिंह चौहान - Babu Singh CHAUHAN
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)नकः
र प्रकृति-पृत्र
“और आज । आज कंसे माह्रा हुआ ?
“आज तक अच्यायियों को भय था कि कही कोई मेरे चीत्कार सन
कर मेरी सहायता को न दीठ पडे । इसलिए मश्े उन्होंने क्षत्रिम अद्ठहास
बखे रने पर विवश किया। मेरी सिसकियाँ न निकलने दी, मृजे रोने
की आज्ञा न दी । पर आज उन्हें विष्वास होगया कि मे निस्सहाय हूँ,
मेरे चीत्कारो से कोड द्रवित नही होगा, मेरे चीत्कार किसी भी निद्रा-
मग्त व्यक्ति को जागृत न कर सकेंगे | क्योकि सभी ने मेरे अतन्र की
प्रम-हाला पी पैर पसार दिये है, तो मझे छोड दिया गया हैँ, चीत्कार
करते-करते मृत्य का ग्रास हो जाने के लिए । वह লীলী।
क्या तुम पर किसी को दया न आई 71
^ दमा ? ४5०» दया की पूछते हो, दया तो मेरी सखी ठहरी । आज
अहकार और क्रता ने दया का कोई स्थान नही छोडा है । आज मानव
ने दानवता को अपनी प्रेयसी वनाया हं ! आज अन्याय समाज के
विधान का अग हो गया है, और गोपषण धर्म का रूप धारण कर गया
हे
उसकी बात सुनकर धरती का हृदय आऽ्चयं चकित रह गया ।
“कहाँ की बात कह रही हो तुम ?
“यहाँ की, इस लोक की, अपने देश की, उसने तनिक आवेश मे
आकर कहा, “समाज के अग-अग को पाप ने डस लिया हूँ, व्यभिचार
इड्सान की रग-रग में समा गया है, मन अधकार की घोर कालिमा से
भी अधिक काला पड गया हैं मानव का। सारा समाज विकरृत-सा
हो गया हैँ, कण-कण में रोग हे, बुरी तरह से सड ,रहा हैं प्रत्येक अग।
स्वार्थ, भ्रष्टाचार, छल, कपट, हिसा, घृणा, स्पर्धा, परिग्रह, वासना,
शोषण, दुव्यंसन इत्यादि चहुँ ओर छा गए हे । इस वातावरण में सेरा
दम घुटने लगा। मेने इसके विपरीत आवाज उठानी चाही, तो मेरा
ही तिरस्कार कर दिया सभी ने । इतना कहकर वह फिर रो उठी।
धरती का हृदय बोला, तुम फिर रोने लगी? रोने से कुछ नही
बनेगा । रोना तो कायरता हें ।***““'हाँ, हाँ, आगे बोलो ? तुम पर
क्या बीती ?
“क्या कहूँ ? मेरी भरे बाजारों आबरू लूटी गईं। मुझे सरे
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