प्रकृति पुत्र | Parkriti - Putra

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Parkriti - Putra by बाबूसिंह चौहान - Babu Singh CHAUHAN

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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नकः र प्रकृति-पृत्र “और आज । आज कंसे माह्रा हुआ ? “आज तक अच्यायियों को भय था कि कही कोई मेरे चीत्कार सन कर मेरी सहायता को न दीठ पडे । इसलिए मश्े उन्होंने क्षत्रिम अद्ठहास बखे रने पर विवश किया। मेरी सिसकियाँ न निकलने दी, मृजे रोने की आज्ञा न दी । पर आज उन्हें विष्वास होगया कि मे निस्सहाय हूँ, मेरे चीत्कारो से कोड द्रवित नही होगा, मेरे चीत्कार किसी भी निद्रा- मग्त व्यक्ति को जागृत न कर सकेंगे | क्योकि सभी ने मेरे अतन्र की प्रम-हाला पी पैर पसार दिये है, तो मझे छोड दिया गया हैँ, चीत्कार करते-करते मृत्य का ग्रास हो जाने के लिए । वह লীলী। क्या तुम पर किसी को दया न आई 71 ^ दमा ? ४5०» दया की पूछते हो, दया तो मेरी सखी ठहरी । आज अहकार और क्रता ने दया का कोई स्थान नही छोडा है । आज मानव ने दानवता को अपनी प्रेयसी वनाया हं ! आज अन्याय समाज के विधान का अग हो गया है, और गोपषण धर्म का रूप धारण कर गया हे उसकी बात सुनकर धरती का हृदय आऽ्चयं चकित रह गया । “कहाँ की बात कह रही हो तुम ? “यहाँ की, इस लोक की, अपने देश की, उसने तनिक आवेश मे आकर कहा, “समाज के अग-अग को पाप ने डस लिया हूँ, व्यभिचार इड्सान की रग-रग में समा गया है, मन अधकार की घोर कालिमा से भी अधिक काला पड गया हैं मानव का। सारा समाज विकरृत-सा हो गया हैँ, कण-कण में रोग हे, बुरी तरह से सड ,रहा हैं प्रत्येक अग। स्वार्थ, भ्रष्टाचार, छल, कपट, हिसा, घृणा, स्पर्धा, परिग्रह, वासना, शोषण, दुव्यंसन इत्यादि चहुँ ओर छा गए हे । इस वातावरण में सेरा दम घुटने लगा। मेने इसके विपरीत आवाज उठानी चाही, तो मेरा ही तिरस्कार कर दिया सभी ने । इतना कहकर वह फिर रो उठी। धरती का हृदय बोला, तुम फिर रोने लगी? रोने से कुछ नही बनेगा । रोना तो कायरता हें ।***““'हाँ, हाँ, आगे बोलो ? तुम पर क्या बीती ? “क्या कहूँ ? मेरी भरे बाजारों आबरू लूटी गईं। मुझे सरे




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