हंस -जनवरी 1942 | Hans-January 1942

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Hans-January 1942 by श्रीपत राय -Shripat Rai

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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३३६ | _ [ पुराण শ্রী संसृति के किसी भी देश के जीवन की सांस्कृतिक भित्ति तक नहीं पहुँचा जा सकता, और इसलिए उस जीवन के ग्रति अपना दायित्व भी नहीं निभाया जा सकता। श्रीक दाशंनिकों ने ग्रीक पुराणों का नया मूल्यांकन किया था तो वे प्रचलित धार्मिक रूढ़ियों की नैतिक, भोतिक अथवा ऐतिहासिक व्याख्या करने लगे थे। उन्होंने देखा था कि पुराणों द्वारा प्राचीनकाल के मनीपियों ने अन्धकारावृत जनता को रूपकों ओर संकेतों के सहारे शिक्षित करके एक सामाजिक सूत्र में बाँधने का प्रारम्भिक प्रयत्न किया था। यह, भी उन्होंने सममा था कि पुराणों के चरित्र बहुधा प्राकृतिक क्रियाओं के काव्यमय मानवीकृत्‌ प्रतिचित्र थी, और पश्चतत्त्वों ने ही देवरूप ग्रहण कर लिया था। यह भी वे देख सके थे कि कुछ देवता केवल महान योद्धाओं, राजाओं अथवा ऋषियों के अतिमानवी रूप हैं । इन सभी अवधाराणाशं में सत्य का अंश है, ओर साथ ही जहाँ ये पुराण के धार्मिक महत्व को अ्रस्वीकार करते हैं, वहाँ यह भी सिद्ध करते हैं कि परम सत्य की उपलब्धि के लिए किये गये इन प्रारम्भिक प्रयासों के लिए लजित हानि का कोई कारण नहीं है| ग्रीक युग का अनेकीश्वरवाद लुप्त हो गया है, परन्तु ग्रीक पुराण की देन को यूरोप का प्रत्येक साहित्यिक आज भी ऋृतज्ञता-पूवेक स्वीकार करता है । श्राज के भारतीयों को तो उपयेक्त दृष्टिकोण का ओचित्य और भी आसानी से स्वीकार कर सकना चाहिये, क्‍योंकि आज वे पुरातत्व, नृतत्व ( »10॥०७००४६५ ) समाज-शास्र ओर मनोविज्ञान के नये आविष्कारों से भी लाभ उठा सकते हैं। उन्हें तो आसानी से वे समक सकना चाहिए कि किसी भी देश के जीवन के गहनतम रहस्य तक पहुंचने के लिए उसका पुराण साहित्य ही सबसे अच्छी कुख्ची है; कि उसी में समष्टिगत आदर्शों और जातिगत आकांक्षाश्रों में वे स््प्नचित्र मिल सकते हैं, जिनका कि विभिन्न व्यक्ति अपनी-अपनी रुचि, दीक्षा, योग्यता ओर संरकारों के आधार पर परिष्कार करते हैं | पुराण ही वह पहली सांम्क्ृतिक इकाई है जिसमें से जीवन की बहुरूपता प्रम्फुटित हुई है।




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