श्रीमदभगवतीसूत्र | Shri Mad Bhagawati Sutra

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Shri Mad Bhagawati Sutra by भगवानदास हरखचंद दोशी - Bhagwandas Harakhchand Doshi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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८ तेतु मोद बं मागे गांठ मारी दे, নাতি भावी , तेओ के छे के जेम कों पुरुष मराकने फलावीने तेतु मोदुं बंध करे, पछी मशकने बचले मा ॐ টপ জা हुं करी तेनो पवन काढी तेमां पाणी भरी दे, पछी गांठ ভীর্ভী লা तो जेम ते पवनने आधारे उपरयुं पाणी नीचे न भवतां उपर ज रहे লন आ पृथ्वी पवनने आधारे रदे समुद उपर टकी रदी छे. ( मा० १ पा० १७) एक स्ये पोताना शिष्य रोक अणगारने समजाबतां भगवान के छ के जेम श्रूकडी अने शं ए बे बे क्यु कार्य अने कुं कारण एवो क्रमवाव्धे विमाग धर शकतो नथी पण वनेन शाश्वत मानवा पडे छे, तेम लोक, अलोक, जीव, भजीवे बगेर माबोने पण शाश्वत मानवाना छे. ए बे वञ्च करो कार्यकारणनो कम नथी. (भा० १ पा० १६७) एक्यके गर्म जीवनी स्थितिनी चर्चा करतां गर्भमां रहेलो जीव झुं खाय छे, तेने शौच, मूत, शेष बगेर शेय छे के नदी, गस्य जीवि करेला आहारना कया कया परिणामो याय ॐ, ते जीव मुखथी खाई शके छ के नषि, ते करं रते आहार ठे छे, ते जीवभां केटलो मातानो अने कटो पितानो अंश होय ॐ, तेतु निस्सरण माथाथी थाय छे के पगथी वगेरे शकीकतो जेम महिं चरक समजावे हे, ते ज रते, पण संषेपमां समजाववामां आवी छे. ( मा० १ पा० १८१ ) एक बीजी जग्याए पाणीना गर्भं विषे विचार चारे छे. तेमां कदे छ के पाणीनो बेधाएो गर्म वधारेमां वधारे छ महिना रुष टकी शके छे, पी तो ते गढे ज. (भा० १ पा० २७३ ) आ निमे थोडी वधारे चर्च डाणांग सूत्रमां पण आवे छे. एनी सविस्तर चती जोवी शेय तो बाराहीसंद्वितामां उदकगर्भने रगतुं आखुं प्रकरण जोई लेबुं जोईए. गरभ क्यारे बंधाय छे, कया महिनामा एनी केवी स्थिति होय छे, क्यारे गक छे, ते बधु एमां सविस्तर वर्णनायेदं छे. बाराहीसंष्टिता ए वैदिक परपरानो विश्वकोष जेबो एक मोटो प्रथ छे ते न युलाय. भाषा-ान्दना खरूपनी चच करतां बरब्दोनी उत्पत्ति, शब्दोनो आकार, बोलायेर शब्द यां पर्यबसान पामे छे ते अने शब्दा प्रमाणुओ बगेर विपे विस्तारथी जणावें छे. (८ भा० १ पा० २९१ ) पन्नतणासूत्रमां भाषाना ल्रूपने र्गतुं भाषापद नामनु एक. ११ मुं प्रकरण ज छे. तो विशेपार्थीए ए बधुं ल्यांथी जोई उ. समुदरमां मरती भने ओट थाय छे ते सौ कोइईनी जाणमां छे, ते भरतीओट थवानां कारणोनी चची करतां समुद्दनी चारे दिशामां चार मोटा पातालकलशो द्वोवानुं अने ते उपरांत बीजा अनेक क्षुद्र कलशो द्वोवानुं जणाब्युं छे. ते पातालकलशोमां नीचेना भागमां बायु रहे छे, वचला भागमां वायु अने पाणी साथे रहे छे जने उपला मागमां एकं पाणी रहे छे. ्यारे ए वायु क्ये छे, क्षुब्ध याय छे, ल्मारे समुदन पाणी उखे छे जने ष्यारे एम नधी थलं यरे समुदरलै पाणी ऊखकतु नथी. आ प्रमाणे भरतीओटना प्रश्ने रगतुं समाधान पकं छे. (भा० २ पा० ८२ ) ए समाधानमांधी आपणे एटछं तो जरूर तारबी शकीए छीए के कदाच वायुना कारणयथी समुदमां भरती ओट षतां होय. आ उपरांत सूने अने ऋुने रुगती पण केटडीक चर्चा आ सूत्रमां आवेली छे. ए चचौमां जणावेकी हकीकतोनो ख़ुलासो জ্লাই ज मेव्वी राकी अ्यारे आपणे खगो अने ऋतुना विज्ञानशास्तरनुं गंमीर रीते परिशीलन क्यूँ ছীঘ. काने जे दाब्दो आवे छे ते शब्दोनुं ग्रहण कर्णेन्दिय अने शब्दना स्पर्शी धाय छे के एमने एम थाय छे ? तेना उत्तरमां कर्णेन्दियने दाब्दनो स्प थया प्री ज शब्द प्रहण धाय छे एम खीकारवामां आवे छे, (मा० २ पा० १७१) आ विषे वधारे वित्तारवादुं वर्णन पन्नवणासूत्रना पंदरमा इन्द्ियपदमां छे. तेमां इन्द्रियोना प्रकारों, आकारो, दरेक हन्द्रियनी जाडाई, पहोव्यई, कद, इन्दियोदारा षती पदार््रहणनी रीत, हन्दिय केटरे बधारे दूर के नजीकथी पदार्थने प्रहण करी दके छे ते अंतरनु माप ए बधुं वीगतथी चर्चेल छे. अंधारं अने अजवादुं केम थाय छे तेनो पण ख़ुलासो भगवाने पोतानी रीते जणाब्यों छे. (भा० २ पा० २४६) वनस्पतिबिषे विचार करतां एक जग्याए ते सौथी ओछो आहार क्यारे ले छे अने सौथी वधारे आहार क्यार छे छे ए प्रश्नना उत्तरमां भगवाने जणावेलुं छे के प्राइट्ऋतुमां एटले श्रावण अने भादरवा महिनामां अने वषीक्रतुमां एटले आसो अने कारतकर्मा वनस्पति सोथी वधारेमां बधार आदार ठे डे. अने पष्टी शरद्‌ , हेमत अने वसंतऋतुमां ओछो ओछो आहार ले छे. पण सौथी ओछो आहार प्रीष्मक्रतुमां ठे छे. आ उत्तर सांभी फरीथी गौतमे पुं के हे भगवान | जो प्रीष्मऋतुमां बनस्पति सौथी ओछामां ओछो आहार लेती द्ोय तो ते बखते पांदडाबात्दी, पृष्पवात्ठी, দ্েনাভ্ঠী, ভীতীন্ঞল অল জ্বল হালানাঙ্ভী केम देखाय छे ? उत्तरमां भगवाने कह्य॑ छे के केटल्यक उण्योनिकः जीवो तथा पुद्गलो बनस्पतिकायरूपे तेमां उत्पन्न चाय छ, एकटा धाय छे, धारे इद्धि पामे छे, ते कारणथी हे गौतम ! प्रीष्ममां अल्पाहार करती वनस्पति पांदडावाठी, पुष्पवाली, परठषाी, अने आंखने रे एवी शोमावादी धाय छे. नि त १ जूञओो प्रष्युत অন্য भा० १ पर* २५३ तथा रिप्पण १ प° २७५ ।




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