ऋग्वेदभाष्यम् | Rigvedabhashyam

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Rigvedabhashyam by श्रीमद्दयानन्द सरस्वती - Shrimaddayanand Saraswati

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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10 16 [१ व ~~ - তে সী পপি সী = ~ का পশম ० 1 | १४४४ ऋग्वेदः अ० १ । अ० ६ । घण १०॥ বিসিসি পিস পা টিপ তল লাস পাপ শী শপ শী न | | ५ न्वयः -ह मनष्या यथा विष्णुः भिये बरहिषि दषखमधि- सोटन्‌ षयो न यन््दृच्युतं शत्रनिरोधकमावत्‌ अतवसस्ते ह म- द्ित्वना वर्भनति ये विमानादियानेन तखरुर्सट्‌ः गच्छधग्त्याऽऽग- च्छर्नति ते नाकं चक्रिरं ॥७॥ भावाग्रं-अनोपमालं०-यथा पक्षिण श्राकाशे सुखेन गत्वा- 5गच्छनति तथेव ये प्रशस्ताशिल्प विद्या विद्भ्यो ६ ध्यपके भय: सा ज्गे - पाड्नं शिल्प विद्यां साक्नात॒क॒त्य तया यानानि संसाध्य सम्यग्रज्षित्वा | बर्धयनति तणएवोत्तमां प्रतिष्ठां प्रशक्तानि घनानि च प्रा नित्यं | वर्धन्ति इति ॥७॥ परदाधे:- ममुष्यो जेसे (विष्णु) खूयवत्‌ गिल्यविद्या में निधुण मनुष्य (प्रिये) अत्यन्त सुन्दर (वहिंषि) आकाश में (हदणम्‌) भ्रग्नि जल को वर्षा युक्ष विमान | के (अधिसोदन | ऊपर बठ के (वयो न) जेसे पी आकाश में उड़ते और भ्रूमि में भ्राते हैं वे (थत्‌) जिस (मद्च्युतम्‌) हष को प्राप्तदु्टोक। रोकने हारे मनुष्यों कौ (आवत्‌) रसा करता है उस को जो (स्वसवसः) सकोय बलयुत्ञ मनुष्य प्राप्त होते हैं (तह) वे हो | (महित्वना) महिमा से (्रवर्पन्त) बटते हे श्रौर जो विमानादि यानीं मे(श्रातस्थुः) बेठ के(उर,/बहुत सुखसाधक (सद:)स्थान को जाते आते हैं वे (नाकम्‌) विशेष सुख करतेह॥ हे हर শপ পিস ০০০৮০৪০৯০০০ ~ এক উল ভি পল অল এ কপাল লিল এ ~~ ------ -- ~-- ------- - --------------~----- न ~ क ~ =. = ও আপা - व्र. -न्ल ----- ५ € भूववाप्रः- दस मंत मे उपमालं*-जेखे पन्नो श्राकाश में सुख पूर्वक जाके भाते हैं बसे हो सांगोपांग गिल्पविद्या के साक्षात्‌ करके उस से उक्तम यानादि सिद्ध करते अच्छो सामग्रो का रख के बढाते हैं वेहो उच्तम प्रतिष्ठा भोर धनों को प्राप्त कर नित्य बटा करते हैं ॥ 9 ॥ पुनस्तं वायवः कौ टशा टृत्युपदिश्यते ॥ फिर वे वायु केसे है इस विर पारा इवेदायं धयो न जग्मयः अवस्यवो न पुतनासु येतिरे । भयन्ते विश्वा भवना मरुद्भ्यो राजा नदरव त्वेषसं दशो नरः ।८। | ----- পিপিপি ~~ ज ^ = ध न 4 > न षयि ०१३ कृ-कमक-' সপন




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