विद्यार्थियों का सच्चा मित्र | Vidhyartiyon Ka Sachcha Mitra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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निरोग रहना मनुष्य सात्रका ध्े हू है कवासमें श्रेष्ठ रहनेके ठोमसे अशक्तिके दोते हुए भी वहुतोंकों परिश्रम- पूर्वक विद्याग्यास करना पड़ता है इससे वे जहदी जहदी थोड़े थोड़े दिनोंमिं वीमार पड़ जाते हैं । ततीन-चार पतली पतली रोटियोँ और एक दो चम्मच मात खा लेनेसे ही गढे तक पेट मर जाता है । यदि -कमी कोई जरासी भारी चीज खा ढी तो उस दिन शञामको भूखका पता नहीं रहता । यद्यपि समीकी दशा ऐसी नहीं है फिर भी सोमेंसे पचास या पचहत्तर विद्यार्थी तो ऐसे ही होते हैं इसमें जरा भी सन्देह नहीं । और तुम्हारा दरीर ही क्या अच्छा है £ बूढ़ोंकी तरह तो वैठे हो अच्छा भाज जिस घिषयका विचार करना है वह यह है-- हम सबको सुखकी इच्छा रहती है | सुखका अर्थ यही है कि हमारा मन आनन्दसे रहे और हमें अपनी इच्छाके अनुसार सब चीजें मिछती जायँ । पर दारीर निवेल होनेसे मन प्रसन्न नहीं रहता । शरीर ठीक होने पर जो चीजें बहुत रुचिकर माद्धम होती हैं वीमार हो जाने पर वे. नहीं रुचतीं । ज्वर या वुखारकी हाठतमें अच्छी बड़ी पतंग खूब बढ़िया माँजा और डोरकी रीठ देकर यदि कोई तुम्दें मकानकी छतपर जाकर पतंग उड़ानेंके छिए कहे तो कया यह तुम्हें रुचेगा ? उस वक्त तों तुमको मजेदारसे मजेदार चीज भी रुचिकर न माद्म होगी । इससे यह निश्चय होता है कि संसारमें हम लोगोंके समग्र सुखका आधार अधिकतर नीरोग शर्रीर । वीमार मनुष्यसे पेटमर खाना नहीं खाया जाता रातमें अच्छी नींद नहीं आंती .वाहर घूमा फिरा नहीं जाता और संक्षेपमें कोई मी काम निश्चयके अनुसार उससे नहीं हो सकता. । अच्छे निरोग सुद्ढ़ धर




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