नैवैद्य | Naivedhya

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Naivedhya by हरिश्चन्द्र देव वर्मा - Harishchandra Dev Varma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ६ ) हस ! ईस ! पुर्लो-सा मधुर हास। ~. मानव तु ! क्यों इतना छदास.। सच पूद्छी तो मुझे फूल प्यारे भी बेहद है। रविवावू के शब्दो मेला मे उद्भिद्‌ तस्व के अतिरिक्त योर भी कुछ ६ क्योंकि तभी ती ग्रेमियों से ये इतना आदर पाते है, प्रकृति का सव श्रेष्ठ सौंदर्य फूलों के रूप में ही प्रकट हुआ है। यदि में प्रकृति के इस सोदयं को पकड कर शब्दो द्वारा कागज पर उतार सका होता, तो सुभे कितनी खुशी दती, यष्ट उसी समय बतलाया जाता तो अधिक समीचीन होता । “ভাব লহ को परवाने से पू उश्शाक्‌ নী मज़ा क्या है जो वे जान दिये देते है ।” मानव निरा सजदूर तो है नहीं, जो दिन रात कार्य भार से पिसता ही रहे, उसे भी नन बहलाने के लिए कुछ चाहिए। वही कुछ तो हमे प्रति से मिलता है । स्वयं बेदिफ ऋषियों ने प्रकृति की प्रशंसा मे कदा है। बुद्धि का वास्तविक विकास पवेत की उपत्यकाओं ओर नदियों के संगर्मों में ही होता है । अंभेजी कवि विलियस वडस्वथ ने कहा है--- (206 119प्री88 01 ৪, ९617181 ००0 82৮ 698,01) ৮0 17029 01 2 प्रधव1--- (1 10184 ली बात. ৪০০00 11879 ७ (6७ 88६68 08, ( ऋषि मुनियों की अपेक्षा मनुष्य के भले बुरे के सम्बन्ध में बासन्ती वन का एक प्रभाव तुम्हे अधिक शिक्षा दे सकता है )। विश्वात्मा का लालित्य जैते प्रकृति में फूट पढ़ा है | सारी सत जाग कर कौन चाँदनी रूपी दूध की बरसा करता है? नीरबता का शिशु उसे ही पीकर क्यों रहता है? फूलों के बन्धन से सुरभि छूट कर किसे ढेंढ़ने जाती है ? इसकी खोज कोन करता




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