विद्यार्थियों का सच्चा मित्र | Vidyarthiyon Ka Saccha Mitra

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Vidyarthiyon Ka Saccha Mitra by छोटालाल जीवनलाल शाह - Chhotalal Jeevanlal Shah

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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नीरोग रहना मलुप्य मात्रका धर्म है । पर ही थोड़ा बहुत खाकर स्कूछ चले जाते हो। इतनी चिन्ता रखनेपर भी जब तुम पुष्ट नहीं होते, तव माता निस्पाय होकर सपने मनको इस तरह समझा छेती है कि इसका तो शरीर ही इकहरा है, यह तो जमसे ही ऐसा है | বি और पाठ्शाछाओंके शिक्षक भी केवछ मानसिक शक्तिको सुधा- रनेके पीछे पड़े र न शरीरके सम्बन्धका विचार स्वपे भी नहीं आता। _ इस _ मे स्र जानते हैं कि नीरोग शरीरपाले विद्याधिरयोका मन बब्यान्‌ होता है और इस लिए वे ही अच्छी तरह पढ़कर याद्‌ रख सकते हैं, फिर भी यदि तुम्हें अच्छी तरह पाठ उपस्थित नहीं होता है, तो उसके असछी कारणपर ध्यान न देकर यह मानकर तुम्हें दड देने छातें हैं कि तुमने आल्स्यसे या जान बूझषकर अम्यास नहीं किया है। तुम साइस करके कह भी देते हो कि बहुत वार पढ़ने _ पर भी याद नहीं होता, फिर भी तुम्हारे शिक्षककी दृष्टि से कारणकी ओर नहीं जाती। नि शरीखाढोका मस्तिष्क निर्वै होता है । इसे कठिन अम्यास कटनप्र भी अथ्टी तरह पाठ याद्‌ नहीं रहता । मान- __. सिक হানি হুল नियमको अल्ग रखकर तुम्हारे कितने ही शिक्षक क्रोध दिखाते हुए तुमले कहते हैं कि यदि याद नहीं रहता तो, सौ बार _पढ़ो, हजार वार पढ़े, इससे शीघ्र याद हो जायगा |] परन्तु वे इस बातका विचार ही नहीं करते हैं कि जय पाँच-सात बार पढ़नेसे ही भुन्हारा दिमाग घूमने चकराने छगता है, तो सै या हज़ार बार पढ़नेपर तुम्दारी क्या दशा होगी £ इस तरह जब तुम्हारे मनके ही समान तुम्दारे शरीरकों भी विकसित करनेकी जरूरत है, तत्र यद्द कितने खेदकी वात ७




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