गुदगुदी | Gudgudii

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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निर्वाक-अवाक सुनता रहा, अपलक देखता रहा श्रीवास्तव जी की भगिमोंयें | उनकी बातो से असहमत था तो पढ़ लिया था उन्होने मुझे मन ही मन 1.... ..मुझे धिक्कारते हुए बोले, ' फूलहिं फलहि न बेंत जदपि सुधा बरसहि जलद । हुह, तुम्हारा कसूर नहीं बरखुरदार, कसूर तो इस देश के आजकल की हवा-पानी और माटी का है . .. .बिलावज़े तुम्हारी गुरूवाई में झीकता रहा, वर्ना अब तक पॉच किलोमीटर का मार्निंगवाक कर चुका होता । आसमान की ओर चलता तो किसी ग्रह के ऊपर बैठा-बैठा गाना गा रहा होता ।' मुझे बडी हिकारत भरी नज़र से घूरते हुये वह फिर दूसरे रास्ते पर मुड लिये थे । ण गुदगुदी .. # १५ कं




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