ध्वनि सिद्धान्त का काव्यशास्त्रीय सौन्दर्य शास्त्रीय और समाजमनोवैज्ञानिक अध्ययन | Dhwani Siddhant Ka Kavyashastriy Saundarya Shastriya Aur Samajamanovaigyanik Adhyayan

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Dhwani Siddhant Ka Kavyashastriy Saundarya Shastriya Aur Samajamanovaigyanik Adhyayan by कृष्ण कुमार - Krishn Kumar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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४घ्वनि-पिद्धास्त का*****अध्ययन के माय सरुक्त होवर शब्द को पूर्णद, को प्रताति के साथ हा अर्थववोध कपते তা यढ शूना गरी परवोवि, स्फोटै । महरि स्फोट भ डर भौर अर्थ, दोनों को पूर्णता की समकालिक अनुमूदि मानते हैं । वावय कौ पूर्णता खौ प्रतीचि, वाक्यस्ोट कही गयी है। वावयपूर्णवा के साथ-साथ वावयार्य-प्रदीति भी होती है। 'यथपि घ्वनियों के क्रम से जन्म लेने के कारण स्फोट सक्रम प्रतीव होता है तथापि वह सक्रम नहीं हे, উল মহত কী অই ক তে में मयूर के अग-प्रत्यय वक्र्म रहते हुए भी क्रम से हो विकसित होते हैं, वैसे हो स्फोट भी अकप्र है विन्ठु ध्यति के क्रम मे उच्चरित होने मे स्फोट में सक्रमत, प्रवोत होतो है। इसी प्रकार शब्द में वर्ण, पद, वर्णावयव, पदावयव, नाति, व्यक्ति, सखण्ड यदि प्रतीर्रिया भ्रम है । वतु ण्ड तथा साय बावप दही स्फोट है ।*१ १५ व्यग्य व्यजकभाव --मदृहरि ने नाद আঁং स्फोट मे ध्यजक-व्यग्य भाव कहा है. जैसे ग्रहण (इन्धिम) পীব ग्राह्य (रूप मादि) को योगता नियत है -- वैते स्फोट मौर नाद की व्यग्य-व्यजफ भाव ते योग्यता नित है । प्रहुण्राहो सिद्धो नियता योग्यता यया 1 स्पग्य-व्यजकभायेन तथैव स्पमोटनादयो 18৭ नाद व्यजक है और स्फोट व्यग्य । नाद ओर स्फोट का यह सबन्ध नित्य झऔर स्वाभाविक है । नाद के अमाव में स्फोट को अस्तित्व-सिद्धि ही अस्म्मव है | स्फोट भें शब्द भयवा वाक्य कौ शति प्रण होवो है । इष प्रकार स्फोट मे अर्थ भ्रद्ीति भी है, विन्तु स्पोट का व्यग्य कहा गया है, इंस्नलिये, स्फोट में प्रतीत होने वाले अर्थ को भी व्यग्य कह। जर सववा है । आचार्य आनन्‍्दतर्धव द्वारा प्रतिपादित ज्यग्यार्थ का आधार यही धारणा है। बाद” व्यजक है, यह नाद वर्णध्वनियों से उत्पन होता है, अव नाद, ध्यनिरूप ही है । ध्वनि, वर्णों का गुण है, नदि का व्यजकत्व, कारण स्वरूप वर्णों का ही व्यजकत्व है 1 वर्ण ही शब्द का निर्माण करते हैं तथा शब्द की पूर्णता के साथ ही अर्थ की प्रतीति भरत हरि द्वारा कही गई है, इपलिये अर्य के परति वर्णवि्मित शब्द का भी व्यजकत्व सिद्ध होवा है | इसी आधार पर शब्द चथा बावय व्यतिरिक्त अर्थ में बानन्दवर्षन ते व्यजक-व्यग्य भाव प्रत्रिपादित किया है । इस प्रकार व्यग्य-ब्यजक मात्र मूलव वैयाकरणो दारा प्रतिपादित है, स्थिति साम्य के कारण आननन्‍्दवर्धन न इसका उपयोग “ध्वनि-सिद्धान्त में किया। व्यग्य-ब्यजक भाव के अर्थ म विस्तार भा हुजा क्यङि ध्वनि-सिद्धान्त के जतर्गव, शब्द ही नहीं, याच्य, नश्य, चौर व्यस्य कौ व्यवरुता मो अ्रतिषादित की गई है । १ सू० ना० शु० वासप्पदीयमू, पृ० १३ २ बही का० ६७) प° १०६




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