जैन दर्शन में आत्म-विचार (1984) एसी 5917 | Jain Darshan Me Aatma Vichar (1984) Ac 5917

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Jain Darshan Me Aatma Vichar (1984) Ac 5917 by लालचंद जैन - Lalchand Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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४ : जैनदर्शंन भें आत्म-विचार के पुत्र नचिकेता के दारा आत्मतत्व आनने की ईच्छा प्रकटः करने पर यम संसार की अनन्त विभतियों को देकर उसे आत्मा सम्बन्धी प्रश्न से विरत करना बाहता है और नचिकेता को बताता है कि इस विषय में देवताओं को भी जिज्ञासा हुई थी । वे भी इसे नहीं जान सके 81৩ नचिकेता यम द्वारा प्रदत समस्त सासारिक सम्पत्तियो को दुकरा देवा ह भौर आत्मा को जानने को उसकी जिज्ञासा और भी प्रबल हो जाती है ।* अन्त में यम को आत्म-स्वरूप का प्रति- पादन करना पडता है ।* (२) बृहदारण्यक उपनिषद्‌ में मैत्रेयी और याज्वल्क्य का लम्बा उपाख्यान आया है । उसका सक्षिप्तसार यह है कि मैन्रेयी याज्ञवल्क्य से कहती है कि जिस सासारिक विभूतियों से मैं अमृत नहीं होती, उन्हें लेकर मैं क्या करू ? जिससे अमृत बन सकं उसी का उपदेश दीजिए* । अन्त में याज्ञवल्क्य मैत्रेयी को आत्मा सम्बन्धी उपदेश देता है कि आत्मा ही दर्शनीय ह, श्रवणीय है, मननीय मौर ध्यान करने योग्य ह° ¦ १. येयं प्रते विचिकित्सा मनुष्येषसतीत्येके नायमस्तीति चैके । एतद्विचयामनुशिष्टस्त्वयाऽहं 4 राणामेष वरस्तृत्तीय ॥ कठोपनिषद्‌, १।२० २ शतायुषः पुत्रपौत्रान्वृणौष्व बहन्पदून्हुस्तिहिरण्यमदवान्‌ । भूमेर्महदायतनं वृ णीष्व स्वयं च जीव शरदो यावदिच्छसि ॥ एतत्तुल्य यदि मन्यसे वरं वृणीष्व वित्तं चिरजीविका च । महाभूमौ नचिकेतस्त्वमेधि कामाना त्वा कामभार्जे करोमि ॥ ये ये कामा दुर्लभा मरत्यंलोके सर्वान्कामादछन्दत प्रार्थयस्व । हमा रामाः सरथाः सतूर्या न हीदृशा रम्मनीया मनुष्यं. । आभिमत्प्रत्ताभि. परिधारयस्व नचिकेतो मरणं माऽनुप्राक्षीः ॥ --बही , १।२ ३-२५ ३. देवैरत्रापि विचिकित्सितं पुरा न हि सुजेयमणुरेष धर्म ।--वही, १1२१ ४. देवैरत्रापि विचिकित्सितं किल त्वं च मृत्यो यन्न सुशेयमात्य । वक्ता चास्य त्वादृगन्यो न शम्यो नान्यो वरस्तुल्य एतस्य कर्चित्‌ ॥ --वही, १।२२ । भौर भी देखे १।२६-२९ ५. वही, २।१८ ६. बृहदारण्यकोपनिषद्‌० २।४।१-३ ७. आत्मा वा अरे द्रष्टव्य ॒श्रोतग्यो मन्तग्यो निदिध्यासितण्यो रत्रग्यात्मनो वा भरे दर्शनेन श्रवणेन मत्या विज्ञानेनेदं सँ विदितम्‌ ।--यही, २।४।५




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