तिलोय पण्णत्ति भाग - 1 | Tiloy Pannti Bhag - 1

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Book Image : तिलोय पण्णत्ति भाग - 1  - Tiloy Pannti  Bhag - 1

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कः पुरोवाक #ँ श्री यतिवृषभाचाये द्वारा विरचित 'तिलोयपण्शसी' ग्रन्थ जैन वाडः मय के भ्रन्तगंत करणानु- योग का प्राचीन ग्रन्थ है। इसमें लोक-प्ररूपणा के साथ श्रनेक प्रमेयों का दिग्दशंन उपलब्ध है। राजवातिक, हरिवंशपुराण, त्रिलोकसार, जम्बूद्वीपश्रशप्ति तथा सिद्धान्तसा रदीपक श्रादि ग्रन्थों का यह मूल स्रोत कहा जाता है। इसका पहली बार प्रकाशन डॉ० हीरालाल जी व डॉ० ए०एन० उपाध्ये के सम्पादकत्व मे पं० बालचन्द्र जी शास्त्री कृत हिन्दी भ्रनुवाद के साथ जीवशाज भ्रन्थमाला सोलापुर से हुआ था, जो ক্স श्रप्राप्य है। इस सस्करण मे गणित सम्बन्धी कुछ सदर्भ अस्पष्ट रह गये थे जिन्हें इस सस्करण में टोकाकर्जो श्री १०५ भ्रायिका विशुद्धमती जी ने भ्रनेक प्राचीन प्रतियों के झ्राधार पर स्पष्ट किया है। जिलोकसार तथा सिद्धान्तससारदीपक की टीका करने के पश्चात्‌ आपने “तिलोयपण्शसी' को प्राचीन प्रतियों के आधार से सशोधित कर हिन्दी अनुवाद से युक्त किया है तथा प्रसद्भानुसार आगत भ्रनेक आकृतियो, सदष्टियो एवं विशेषार्थों से अलकृत किया है, यह प्रसन्नता की बात है। तीन खण्डों मे यह ग्रन्थ क्रश १६८४, १६८६ और १६८८ मे प्रकाशित हो चुका है, प्रस्तुत प्रकाशन प्रथमखण्ड का द्वितीय सस्करण है जो सशोधित एव यत्किचित परिवर्धित है। पृज्य माताजी शी विशुद्धमतो जी श्रभीक्ण-ज्ञानोपयोग वाली आथिका है। इनका समग्र समय स्वाध्याय झ्रौर तत्त्व - चिन्तन मे व्यतीत होता है तपश्चरर के प्रभाव से इनके क्षयोपशम मे श्राश्वयंकारक वृद्धि हुई है। इसी क्षयोपशम के कारण श्राप इन गहन ग्रन्थो की टीका करने में सक्षम हो सकी हैं । डॉ० चेतनप्रकाश जो पाटनो ने ग्रन्थ का सम्पादन बहुत परिश्रम से किया है तथा प्रस्तावना मे सम्बद्ध समस्त विषयो की पर्याप्त जानकारी दी है। गणित के प्रसिद्ध विद्वान प्रो० लक्ष्मीथन्द्र जी ने तिलोयपण्णतसो और उसका गखित' शोषेक श्रपने लेख मे गरिित कौ विविध धाराभ्रोंको स्पष्ट किया है। माताजी ने अपने ्रादचमिताक्षर' में ग्रन्थ के उपोद्घात का पूणं विवरण दिया है) भारतवर्षोय दि० जैन महासभा के उत्साही-कर्मठ श्रध्यक्ष शो निमलकुमारजी सेठी ने महासमा के प्रकाशन विभाग द्वारा इस महान्‌ ग्रन्थ का प्रकाशन कर प्रकाशनविभाग को गौरवान्वित किया है। ग्रन्थ के सम्पादक ॐं० चेतनप्रकाश जी पाटनी, दिवंगत पूज्य भुनिराज भी १०८ समता- सागर जी के सुपुत्र है तथा उन्हे पंतृक सम्पत्ति के रूप मे अपार समता तथा श्रुताराधना की श्रपूर्ब अभिरुचि (लगन) प्राप्त हुई है। टीकाकर्त्री माताजी प्रारम्भ मे भले ही मेरी शिष्या रही हो पर भ्रव तो मैं उनमें अपने श्रापको पढा देने की क्षमता देख रहा हूँ। टीकाकर््री माताजी श्रौर सम्पादक डॉ चेतनप्रकाश जी पाटनी के स्वस्थ दीर्घजीवन की कामना करता हुआ अपना पुरोवाक्‌ समाप्त करता हूँ । विनीत : पन्नालाल साहिष्याश्चायं




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