तिलोय - पण्णत्ती | Tiloya Pannti

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१३ संहृष्टियां वगैरह साफ है इत्यादि । टीका की बात सुनते ही मन-मयूर नाच उठा । उसके लिए प्रयास भी बहुत किए । किन्तु रन्त में ज्ञात हुआ कि टीका नही है । इसी बीच ( सन्‌ १६८२ के मई या जून में ) शानयोगी भट्टारक श्री चारुकीतिजी (मूल विद्री) उदयपुर आए । चर्चा हुई भौर आपने प्रतिलिपि भेजने का विशेष आइवासन भी दिया किन्तु भ्रन्तमें वहां से चतुर्थाधिकार की गाथा सं० २२३८ पर्य॑न्त मान्र पाठभेद ही झाए। साथ में सूचना प्राप्त हुई कि अगि के पत्र नहीं हैं! । एक भ्रन्य प्रति की खोज की गई जिसमें चतुर्थाधिकार की गाथा सं० २५२७ से प्रारम्भ होकर पाँचवें अधिकार की गाथा सं० २८० तक के पाठभेदों के साथ ( चौथा अधिकार भी पूरा नहीं हुआ, उसमें २८६ गाथाओं के पाठभेद नही भाए। ) दिनांक २५-२-८३ को सूचना प्राप्त हुई कि ग्रन्थ यहाँ तक भ्राकर अधूरा रह गया है अब आगे कोई पत्र नही हैं । इस सूचना ने हृदय को कितनी पीड़ा पहुंचाई इसको झ्भिव्यञ्जना कराने में यह जड़ लेखनी भ्रसमर्थ है । संशोधन--मूलविद्री रो प्राप्त पाठभेदों से पूर्व लिखित तीनों श्रधिकारों का संशोधन कर अर्थात्‌ पाठभेदों के माध्यम से यथोचित परिवर्तेन एवं परिवधेन कर प्रेसकोपी दिनांक १०-६-८३ को प्रेस में भेज दी और यह निर्णय ले लिया कि इन तीन भ्रधिकारों काही प्रकाशन होगा, क्योकि पूरी गाथाओं के पाठ भेद न आने के कारण चतुर्थाधिकार शुद्ध हो ही नहीं सकता । यहां भ्रशोकनगरस्थ समाधिस्थल पर श्री १००८ शान्तिनाथ जिनालय का निर्माण दि० जेन समाज की प्रोरसे कराया गया था । पृण्ययोग से मन्दिरजी की प्रतिष्ठा हेतु कर्मंयोगी भट्टारक श्री चारुकीतिजी जैनविद्री वाले मई मास १६८३ में यहां पधार । प्रन्थ के विषय मे विशेष चर्चा हुई। आपने विश्वासपूर्वक भ्राइबासन दिया कि हमारे यहां एक ही प्रति है भौर पूर्ण है किन्तु भमी वहां कोई उभय भाषाविज्ञ विद्वान नहीं है । जिसकी व्यवस्था मैं वहां पहुंचते ही करूगा झौर ग्रन्थ का कायं पणं करने का प्रयास करू गा । आप कमंनिष्ठ, सत्यभाषी, गम्भीर भ्रौर शान्त प्रकृति के है । अपने वचनानुसार सितम्बर माह (१९८३) के प्रथम सप्ताह में ही प्रथमाधिकार की लिप्यन्तरण गाथाये आ गरं ओर तबसे भ्राज पर्व॑त यह कायं भ्रनवरत चालू है । गाथाए आने के तुरन्त बाद प्रस से प्रंसकॉपी मंगाकर उन्हें पुनः ' संशोधित किया भौर हस टीका का मूलाधार हसो प्रति को बनाया । इसप्रकार जेनयिद्री से सं० १२६६ की प्राचीन कन्नडप्रति को देवनागरी प्रतिलिपि प्राप्त हो जाने से और उसमे नवीन भ्रनेक गायाएँ, पाठभेद और शुद्ध संदृष्टियाँ आदि प्राप्त हो जाने से विषय एवं भाषा आदि में स्वयमेय परिवर्तन।परिवधेन आदि हो गया, जिसके फलस्वरूप ग्रन्थ का नवीनीकरण जंसा ही हो गया है। झम्तरवेंदना--हस्तलिखित अतियाँ प्राप्त करने में कितना संब्लेश और उनके पाठों एबं “ गायाप्रों भ्रादि का चयन क्रने में कितना श्रम हुआ है, इसका व्ेदन सम्पादक समाज तो मेरे लिखे




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