श्रमण संस्कृति : सिध्दान्त और साधना | Sharman Sanskriti Siddhant Aur Sadhna

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Sharman Sanskriti Siddhant Aur Sadhna by कलाकुमार -Kalaakumar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्रमण सेंस्क्तति और उसकी प्राचोचतता . .. ३ के प्रति घणा न रखते हृए सदा समभाव में. रहना चाहिए । जो सरों का अपमान करता है, वह दीर्घ काल तक संसार में भ्रमण करता हैं। अतएवं मुनि किसो प्रकार का मद न कर सम रहे । चक्रवर्ती भी दीक्षित होने पर अपने से पूवं दीक्षित अनुचर के अनुचर को भी नमस्कार करने में संकोच न करें, बल्कि समता का आचरण रें। प्रज्ञासम्पन्न मुनि कोध आदि कपायों पर विजय प्राप्त कर . समता धर्म का निरूपण करें । जैन संस्कृति की साधना समता. की साधना है। समता, सम- भाव, समहृष्टि ये सभी जैन संस्कृति के मूल तत्त्व हं । जन परम्परा में सामायिक को साधना को मुख्य स्थान दिया गया है। श्रमण हो या श्रावक हो, श्रमणी हो या श्राविका हो--संभी के लिए सामायिके की साधना आवश्यक मानी गई है। `. समता के अनेक रूप हैं। आचार की समता अहिसा है, विचारों की समता अंनेकान्त है। समाज की समता अपरिग्रह है, और भाषा की समता स्थाद्वाद है। जिस आचार और - विचार में समता का अभाव है, वह आचार और विचार ज॑न संस्कृति को कभी मान्य नहीं रहा । समता. किसी भौतिक तत्त्व का नाम नहीं है, वल्कि मानव मन की कोमल वृत्ति ही समता तथा कर वृत्ति ही विषमता है। प्रेम समता है, वेर विषमता है । समता मानव मन का अमृत है और विष॑मता ` विष दहै । समता जीवन है और নিনললা সংঘ है। समंता धर्म है . ओर विषमता अधमं है । समता एक दिव्य प्रकाश है ओर विषमता. घोर अंधकार है। समता ही श्रमण संस्कृति के विचारों का निचोड है । हु जैसे वेदांत दर्शन का केन्द्र विन्दु अद्वेतववाद और मायावाद है ` सांख्य दशन का मूल प्रकृति और पुरुष का विवेकंवाद है, बौद्ध दर्शन का चिन्तन विज्ञानवाद और शाुन्यवाद है, वैसे ही जैन संस्कृति का आधार अहिंसा और अनेकान्तवाद है । जैन संस्कृति के विधायकों ने अहिसा पर गहराई से विवेचन किया है। उन्होंने अहिंसा की. एकांगो और संकुचित व्याख्या न कर. सर्वागपुर्ण व्याख्या की है।




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