समकक्षसंक्षिप्त जीवन चरित्र और व्याकरण | Samkshipta Jivan Charitra Or Vyakhyan

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Samkshipta Jivan Charitra Or Vyakhyan by दिग्विजय सिंह - Digvijay Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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4 ६ শপ পাপ { ^~ ~~~ ~~~ ^~ ~~~ ननि ते ही सुकक्षो जेन ग्रन्थोंके स्वापध्याय करने व जैन विद्वानोंके सल्सद्भढा निमित्त आप्त हुआ है और इस समय में जो कुछ मकफी जात हो सका वह में ने आपसे यह निवेदन किया । सम्भव है कि मुके टि हयी हो आर भं उस स- हात्माका यावज्जीवन परमकृतज्ष रहूंगा जो कि मुझको मेरी त्रटि बतलाकर (অতি অঘাঘজ ही में खरे मागे पर आरूढ हो गया ह्वोऊं ) सु्ंको उसमें से हस्ताबलस्वन पूर्वक লি- काल कर इससे अच्छा मोक्य माय दिखला दुवे | मेरे जैलचर्स ग्रहण करनेक्षा एक मान्न कारण उसको सत्यता ही है सौर वह भी केवल सत्यता ही होगी भए क्षि सुशको आकृष्ट कर सकेगी । छमा करिये। जेजग्रल्थोंका स्वाध्याय मैंने शहु ज्ञानकी आपिके अर्थ नही प्रारम्भ किया था वरन उससें अटियों ভু दुष्तर उनव्ता खण्दन करनेको, परनत उनकी सत्यतासे सें ऐसा सुग्ध हुआ कि লন স্ববন্তল करनेके स्थानमें आज सें वड गवै से उद्का सराठन कर रहा हरं । हमारे जो भिन्न यथायेमे जैन धसका खण्डन करना चादते है उनको में निष्कपट सम्मति दूंगा कि ने पच्यपात रहित जैनग्रन्थोंका स्थाध्याय करें और उनका शेष कायं स्यं हो जायगा इसमे सन्देह नही ॥ में जानता हूं कि स्वेधा पत्चपात रहित ऐसा करने से सी सुकझो अनेक कठिनाइयोंका सामना करना पड़ेगा परन्तु सुकको उनका कोद सय नहों है पंपोकि मेरे जीवनका एक- सात्र लदये श्रीमान्‌ भवेहरि जीकाः- निन्दन्त॒नीतिनिपणा यदिवास्तुवन्त्‌ । लक्ष्मी:समाविशत गच्छतुवायथेप्टम्‌ ॥ अदीववासरणमस्त युगान्तरेवा । न्यायात्पथ: प्रविचलन्ति पद न घीराः ४ वाला सुभाषित हौ है ॥




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