हिंदी साहित्य में राष्ट्रवाद की अभिव्यक्ति का पुनरावलोकन | Hindī-sāhitya me Rashtrvad ki abhivyakti ka Punravlokan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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निश्चित सार्वमौम और विश्वव्यापी मूल्यों के आधार पर किया है। किन्तु स्पष्टतया यहां यह बोध भी है कि ये मूल्य एक परायी सस्कृति से आए हैं और राष्ट्र की पारपरीण सस्कृति इतना सबल नही प्रदान करती कि विकास के अधार तलों को छुआ जा सके । पूर्व की राष्ट्रीयता के साथ एक ऐसा प्रयास भी जुड़ा रहा है जो परिवर्तन के लिए राष्ट्र को सास्कृतिक रूप से पुनर्निर्मित कर सके । लेकिन यह उस परायी सस्कृति की नकल मात्र से समव नही है । ऐसी स्थिति में एक राष्ट्र अपनी विशिष्टि अस्मिता ही खो बैठेगा । अतः यह एक ऐसी राष्ट्रीय सस्कृति के पुनरुद्धार की खोज थी जो विकास के पश्चिमी प्रतिमानों के अनुकूल तो हो पर अपनी विशिष्टता और अस्मिता भी सुरक्षित रख सके | यह प्रयास अन्तर्विरोधी है- क्योकि यह जिस प्रतिस्प का नकल करता है उसी का विरोधी भी है। इसके भीतर कही एक अस्वीकार की भावना भी छिपी है वस्तुत यह दो तरह के अस्वीकारों की सगति है जो अत्यत द्वैध पूर्ण है - उस पराये घुसपैठिए और शासक का अस्वीकार जिसका अनुकरण करना है और उन पारपरिक युक्तियों का त्याग जो राष्ट्रों के उत्थान में बाधक है किन्तु वे अस्मिता के स्मृति चिन्ह भी हैं। यह द्वैध वृत्ति अत्यंत विस्मयकारी और विश्षुप्त करने वाली है। पूर्वीय राष्ट्रवाद अत्यत विक्षोमपूर्ण और उभयमावी है। अपने अन्य लेखों की भाति प्लमेन्टाज का यह लेख वैसी गहन व्याख्या और तीब्र विवाद तो प्रस्तुत नही करता है फिर भी यह पर्याप्त स्पष्टता के साथ राष्ट्रीयता के विचार के उदार-राष्ट्रवादी की द्विविधा को अभिव्यक्त करता है । इस प्रकार की द्विविधा राष्ट्रवाद के उदारवादी इतिहास में दृष्टिगोचर होती है- मुख्यतया हासकोहन के लेखन में ।




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