श्रीमद राजेन्द्रसुरी स्मारक ग्रन्थ | Shrimad Rajendrasuri Smarak Granth

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Shrimad Rajendrasuri Smarak Granth by विजय्मातींद्र सूरी - vijaymateendra soori

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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शी राजेन्द्रयुरि-चचनामुत । ७ किया और खाली अभिमान किया या छोगों को छूट कर अपनी जेवें दर कर लीं तो यह्द सत्ता का दुरुपयोग दी है । जिछ सता से छोगों का उपछार किया जाय, निःस्‍्वायता से छांच (उत्फोच ) नहीं डी जाय और नीतिपथ को फसी चछोड़ा जाय, वद्दी खत्ता का वास्तविक सदुपयोग है, नहीं दो सत्ता फो फेवछ गदेभ-भार या दुगेतिपात्र सात्र समझना चाहिये। २४ जीवों फी द्विसा ही आत्मा फी हिंसा है और जीदों फी दया द्वी आात्मा की दया है । ऐसा जान कर मद्दान्‌ पुझप सर्वेश्कार से ६िसा या उसके उपदेश का परित्याग कर देते हैं । ससार में सुमेद से ऊंचा कोई पर्वत नहीं और जाकाश से विज्ञाल कोई पदार्थ नहीं । इसी प्रफार अट्विसा से वड़ा कोई घम नहीं है । इसलिये “ जीबो और जीने दो ! इस सिद्धान्त को अपने जीवन में स्थान दो । अपने को जैसा सुख प्रिय ओर दुख अ्रिय है, वैसा ही समस्त प्राणिओं के सम्बंध में भी समझना चाहिये । ক্াঁক্ষি অহা ही तप, जप, संयम और भहायश्ञ है । २५ दूसरे जीवों को सुस्री करना यह मचुण्य का मान्‌ आनद है और दुःख-पीडित जीबों की उपेक्षा करना मलुष्य फे लिये महादुशख है । दूसरे प्राणियों को दुःख या त्रास पहुंचानेवाछा मनुष्य शैत्तान है, अपने ऊपर आये हुए दुःलों को सहन करनेवाला हैवान है और विपत्तिम्रस्त छोगों को सुखी करनेवाला “ इन्शान है | इसी प्रकार कामभोग भके ही जामोद-प्रमोदजनक दो, परन्तु उनका अन्तिम परिणाम चो वियोग, कल्ह्‌ ओर निराशा उत्पन्न करानेचाला द्वी है । अत: काम-भोगों को दुःखद समझ कर इन्शान को त्याग देना चादिये, तभी उपकी इन्शानियत सफल मानी जायगी। २६ गुस-वचनों का सदा आदर फरना, शुरु की आक्षा फा यथावत्‌ पाठन करना शौर उमे न वके, वित्तकैकरनायान ककारील दोना--इसीका नाम ' विनयः हैः । विनय से विद्या, विनय से योग्यता ओर विनय से द्वी शुतज्ञान का छाभ जल में तेलबिन्दु के समान विस्तृत रूप से मिलता है। जिससे ससार में मनुष्य की यश फीर्ति चारों ओर फेलती है. और वह सबका सन्मान-पात्र बनता है। अविनयासिमुख आत्मा अपने दुगुणों के कारण जद्दा पैर रखता है वहां उसके ऊपर अपमानादि विपत्तियोँ आकर खवार हो जाती है । अहंता, दुभौवना और घनादि की ऐँठ--ये सब अविनयजनक উত্স हैं। इस लिये अविनय को तिछांजली देकर विनय गुण को अपनाओ, जिससे उभ्य लोक में सुखठपत्ति की प्राप्ति हो सके । २७ जो मानव खराब आदतों का गुठाम रहता है वह मानवीय गरणों और विश्व




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