स्याद्वादानुभव रत्नाकर | Syadwadanubhav Ratnakar
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
18 MB
कुल पष्ठ :
308
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)मथम अश्नीत्तर । (७)
ज 4 = बन = =
৬৪১1৯৮৮৮১৮৮ “तन ३
है हे इई यर उनके पूछनेपर
अपना सब वृत्तान्त कह दिया तौ उन्होने यह कडा करि जिस मार्गमें समेगी छोग पौीढे
कपड़ेवाले साधु है ओर उनमें कितनेह्दी पुरुष शाख्रके जठुसार चलने और पालनेवाहे हैं
सो उनका संयोग मारवाड़ या गुजरातमें तुम्हारे बनेगा परन्तु अब आषादुका महीना आगया
इस लिये चौमासा यहांद्ी कीजिये वषोके पश्चात् आपकी इच्छाजुसार स्थानपर आपको
वहां पहुंचा देंगे उनके अनुग्रहसे मेने चार महीने वहांही निवास किया, सो एकवार
भोजन किया करता हूसरी वार गांजापीनेकी बाहर जाता यह वात वकि सव
लोग जानते है सिवाय यत्ती छोगेंके और किती साधुगण गरहस्थी वा सेठके
पास जनिका मेरा प्रयोजन ( इत्तिफाक ) न हुवा और इसी हढियें उन यती
छोगोंकी सोहवत शात्लोकी कई प्रकारकी बातें और रहस्य समझमें आये चौमाता वीत्तने
पर मैंने वहांत्ते चछनेका विचार किया तो शिवछालजी यती वहुत पीछे पड़े कि आप रे
भ बैठकर जाइये नहीं तो रास्तेंसे बहुत परिश्रम उठाना पड़ेगा; पर मेने उत्तर दिया कि में
पेदलहदी जाऊंगा क्योंकिएक तो मुझे देशाटन ( झल्कोंकी सैर ) करना है और दूसरे यात्रा
करनी है, भेरी ऐसी धारणा हैँ कि अन्न और वश्च तो गृहस्थी से छेना पर किसीभी
कामक लिये द्रव्य कदापि नही छेना ५७ढिये मेरा पेद्ल जाना ही ठीक होगा आप इसमे
दृठ न करिये) फिर मे मकसूदावादसे चला, कर्मोकी विचित्रतासे वेराग्य कम और चित्त
चश्च त्या विकारवान् दीनेखया ते भने यह पण करडा कि जवतक मेरी चंचढता
न पिंटे तबतक नित्य दो मनुप्योंको मांत और मछलीका त्याग कराये बिन आहार नहीं
ढेऊं, इसी दाछ॒तमें शिसरजी तीयपर आया वहां यात्राकी और एक महीने तक रहा) वीस
इक्कीस वार पहाढ़के ऊपर चढ़कर यात्राकी तया श्री पारतनाथजीकी ठोंकपर अपनी धारणा
प्रमाण बृत्ति धारणकी तब पीछे वहांध्े आगे चछा और ऊपर छिखे नियमाजुसार ऐसा
नियम कर लिया कि जवतक चार जआादमियो को मांठ और मछलीका त्याग न कराऊ तबतक
आहार नहीं कूँगा । देंश देशावरोंमें अमण करता ओर नानकर्पयी, कवीरपंथी आदिसे
वादविवाद करता गयाजीमें पहुंचा वहांसे राजग्िरिम पहुंचा ओर पंचपहाड़की यात्राकी,
उस जगह कवीरपंवी और नानकपंथी वहुत ये जिनसे मिछता हुआ पावापुरीमे पहुंचा ओर
दाहनपति शरी वर्द्धमान स्वाधीजीकी निर्वाण भूमिके ददन करिये तो चिन्तको बहुत आनन्द
हुआ और इच्छा हुई कि कुछ दिन इस देशमें रहकर ज्ञान माप्त कहे; दो चार दिन पीछे
जव भ विहारे गया तो ऐसा सुना कि राजगिरिमें बहुत साधु गुफाजमे रहते है इसलिये
भेरी भी इच्छा हुई कि उनसे अवश्य करके मिल ऐसा विचारकर उन पहाड़ोकी और रवाना
हुआ, फिर दिनमें तो राजगिरिमें आहार पानी छेता और रातको पहाड़के ऊपर चढा जाता
सो कई दिन पीछे एक राजिमें एक साधुको एक जगह बैठा हुआ देखा) ऊँ पहले दूर बेठा
हुआ देखता रहा थोड़ी देरमे दौ चार सा ओर भी उसके पास आये उनकी सब बातें जो
दूरते सुनी तो दिवाय अत्मविचारके कोई दूसरी बात उनके मुँह न निकली तो में भी
उनकेपाप॒जाबैठ थोदी देरके पश्चात् और तो सब चढ्ेगये पर जो पहले बैठायथा वहीं
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