सुखी जीवन | Sukhi Jivan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
8 MB
कुल पष्ठ :
212
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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शान्ति-सुमति-संवाद १७
০৯ ৯৯৯৬
जब आँखे खुलती है तब मनुष्य जानता हैं कि मैने जो देखा था वह
सब झूठ ही था | इसी तरह ये संसारके पदाथ भी झूठे है। संसारी
वस्तुओको देख-सुनकर और भोगकर मन उनको अपनानेके लिये
लालायित हो जाता है | विपयोकी यह कामना ही दुःख देती है।
जव इच्छाएँ बढ़ जाती है तभी मन बात-बातमे सुख-दुःखका अनुभव
करके अपनेको सुखी-दुखी मानने टगता है । चित्तम जेसा सङ्कल्प
বু होता है, बेसा ही संसार दीख पड़ता हैं | हे बहिन ! जब तुम
अपने असली खरूपको जान छोगी तब तुम्हे भी दुःख और सुख
समान हो जायेंगे.। अपने खरूपका ज्ञान वेढान्तके विचारसे और
मंतोका सङ्ग करनेसे होगा । संसारी इच्छाओसे चित्तको रोककर
ईश्वर-मजन करोगी तथ तुम्हे अपने खरूपका ज्ञान हो जायगा ।
बहिन ! तुम बहुत गहरी नींठमे सो चुकी, अब तुम्हे जागना
चाहिये | यह मनुप्य-देह उसलिये मिला हैं कि जीव इस बातको जान
कि में इश्वरका सनातन अंश हूँ, मुझमे सुख-हु.ख कदापि नहीं
में अविनाशी हैँ, मुझ्न आत्मखरूप परम तत्त्वका कभी नाश नहीं
होता । वैसे तो और भी वहुत-सी योनियाँ है पर किसीमे भी विचार
करनेकी सामर्थ्य नहीं हैं | वहिन ! यह मनुपष्य-जीवन विपयभोगोमे ही
समाप्त न हो जाय, इसका हर एक नर-नारीको खूब ध्यान रखना
चाहिये | भगवानका मजन ही यहाँ सार तत्व है | और मान लो कि
इस जन्ममें भगवानका भजन किया जावे, परन्तु अभ्यासकी कमीसे
मृत्युके समय भगवानमे चित्त न रहे तो कमेकि परिणाममे किसी पश्चु
या पक्षीकी योनि मिलनेपर भी वह प्र्वन्यासवश प्रमुका थोडा-बहुत
सु० जी० २---
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