सुखी जीवन | Sukhi Jivan

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Sukhi Jivan by मैत्री देवी -maitri devi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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| शान्ति-सुमति-संवाद १७ ০৯ ৯৯৯৬ जब आँखे खुलती है तब मनुष्य जानता हैं कि मैने जो देखा था वह सब झूठ ही था | इसी तरह ये संसारके पदाथ भी झूठे है। संसारी वस्तुओको देख-सुनकर और भोगकर मन उनको अपनानेके लिये लालायित हो जाता है | विपयोकी यह कामना ही दुःख देती है। जव इच्छाएँ बढ़ जाती है तभी मन बात-बातमे सुख-दुःखका अनुभव करके अपनेको सुखी-दुखी मानने टगता है । चित्तम जेसा सङ्कल्प বু होता है, बेसा ही संसार दीख पड़ता हैं | हे बहिन ! जब तुम अपने असली खरूपको जान छोगी तब तुम्हे भी दुःख और सुख समान हो जायेंगे.। अपने खरूपका ज्ञान वेढान्तके विचारसे और मंतोका सङ्ग करनेसे होगा । संसारी इच्छाओसे चित्तको रोककर ईश्वर-मजन करोगी तथ तुम्हे अपने खरूपका ज्ञान हो जायगा । बहिन ! तुम बहुत गहरी नींठमे सो चुकी, अब तुम्हे जागना चाहिये | यह मनुप्य-देह उसलिये मिला हैं कि जीव इस बातको जान कि में इश्वरका सनातन अंश हूँ, मुझमे सुख-हु.ख कदापि नहीं में अविनाशी हैँ, मुझ्न आत्मखरूप परम तत्त्वका कभी नाश नहीं होता । वैसे तो और भी वहुत-सी योनियाँ है पर किसीमे भी विचार करनेकी सामर्थ्य नहीं हैं | वहिन ! यह मनुपष्य-जीवन विपयभोगोमे ही समाप्त न हो जाय, इसका हर एक नर-नारीको खूब ध्यान रखना चाहिये | भगवानका मजन ही यहाँ सार तत्व है | और मान लो कि इस जन्ममें भगवानका भजन किया जावे, परन्तु अभ्यासकी कमीसे मृत्युके समय भगवानमे चित्त न रहे तो कमेकि परिणाममे किसी पश्चु या पक्षीकी योनि मिलनेपर भी वह प्र्वन्यासवश प्रमुका थोडा-बहुत सु० जी० २--- ৫ 31




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