हिन्दी - काव्य में अन्योक्ति | Hindi Kavya Men Anyokti

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दिपय-प्रवेश হু बह सकते हैं। कुछ ऐसे भी आलोचक हैं जो साहित्य के क्ला-पक्ष को लेकर “गम्दार्यो सहितौ कान्यम्‌ अर्यात्‌ शब्द श्रोर श्रयं दोनो का साथ-साथ रहना साहित्य का ब्युत्पत्ति-निमित्त कहते हैं। वैसे देखा जाय तो शब्द और अर्थ का अविनाभाव-सम्बन्ध के साथ-साथ रहता साधारणत होता ही है, किन्तु यहाँ--जैस। कि कु्तक ने भी कहा है--साथ-साथ रहने से अभिप्रेत है शब्द और प्र की सन्तुलित रूप मे मनोहारिणी स्थिति, न कि न्यूनातिरिक्तस्पमे साधारण स्थिति ।* इससे केवल झब्द-प्रधान झ्थवा केवल अये-प्रधान रचनाएँ साहित्य के शरस्तगंत नही झा सकती । साहित्य की यह व्युत्पत्ति शरोर-पक्षीय है, हमने भाव-पक्षीय दिखाई है। किन्तु सतुलित झब्दा्थों मे ही श्रधिवतर भावोद्रेक देखने भे श्लाता है, इसलिए दोनों व्युत्तक्तियों में अधिक प्रस्तर नहीं है । हे संस्कृत में साहित्य शब्द काव्य के पर्याय-रूप में प्रयुक्त हुआ मिलता है, किन्तु ग्राजहल साहित्य एवं काब्य में कुछ अन्तर रखा जाने लगा है। साहित्य का अर्थ व्यापक रूप में लेक्र किसी भी साहित्य भौर काव्य. प्रकार के लिखित वाइ मय को उसके रन्ते कर देते परस्पर पर्याय. हैं, किन्तु साहित्य-सम्बन्धी इतना व्यापक हृष्टिकोण हमे उचित नही जेचता । मानव-समाज के ज्ञानवर्धक चिज्ञान-विपयक ग्रन्थों को साहित्य कंसे कहा जाय । वास्तव मे न्याय, गणित, ज्योतिष, वैच ग्रादि तो विज्ञान की वस्तुएँ हैं। मस्तिप्क की उपज होने से वे भ्र्ध॑-प्रधान हैं। साहित्य तो सागर को तरह कल्पना की वायु से उद्बं लित मनोवेगो एवं भाव-तरगों की स्थायी रस-राशि है ६ भाव-तरगे दृश्य, श्रव्य, गय, पद्म या प्रस्य जिस किसी भी प्रकार से प्रस्कुटित होकर जो सृजन करती हैं, चही माहित्य है। इस तरह साहित्य और काव्य दोनो एक ही वस्तु हैं। वाब्य के दो पश्च होते हैं--कल्ा-पक्ष और भाव-पक्ष । इनके बिना बास्य वा कोई अस्तित्व नही। कुछ विद्वाव्‌ क्ला-पक्ष पर बल देते हैं और कोई माव-पक्ष पर । वास्तव से काव्य वा रहस्य समभने काव्य के दो पक्ष : के लिए उसके इन दोनों पहलुओं से भली भांति परि- कला झोर भाव चित होना श्रावस्यक है। हमारे प्राचीन आचार्यो ने इस विषय में गम्भीर विवेचन झौर मनने विया है । वाव्य वेः सम्बन्ध में झव तक चले हुए छः मुख्य सम्प्रदाय माने जाने है-- १. दाब्दायों सहितो कास्यम्‌ ४““'प्रस्यूनानतिरिस्तत्व-मनोहारिध्यवस्यितिः, +बमोरित जीवित, १७, १७ ।




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