दक्षिण भारत के हिन्दी - प्रचार - आंदोलन का समीक्षात्मक इतिहास | Dakshin Bharat Ke Hindi - Prachar - Andolan Ka Samikshatmak Itihas
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
142 MB
कुल पष्ठ :
447
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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आज भारत खतंत्र है। इमने मारत में, गणतंत्रात्मक्र शासन कायम करना
चाहा और तदनुसार विधान भी बनाया। देश में सबसे अधिक व्यापक तथा
सरल भाषा हिन्दी को हमने एक स्वर में राजभाषा घोषित भी किया। देश के
पुनगठन कौ बात तय हुई । तदनुसार भाषावार प्रांतों की पुनरचना भी की गयी।
देश के विकास के लिए पंचवर्षीय योजनाएँ बनीं जिनमें राजभाषा हिन्दी के प्रचार
प्रसार एवं वृद्धि का काय देश की भावनात्मक एकता के लिए अत्यंत आवश्यक
समझा गया | अतः सन् १९६५ के बाद अंग्रेश्नी के स्थान पर हिन्दी का व्यवहार
सावजनिक रूप में करने का भी हमने निश्चय किया ।
लेकिन दुर्भाग्य की बात है, हमारे देश की गति-विधि में कुछ आकस्मिक
परिवर्तन हुए । भाषावार प्रान्त के पुनर्गठन के बाद प्रादेशिक भाषाओं के समर्थन
में हिन्दी के विरुद्ध कुछ दक्षिणी छोग आवाज्ञ उठाने छगे। उनमें संकीर्णता इतनी
बढ़ गयी कि वे हिन्दी तथा हिन्दीवालों को शंका की दृष्टि से देखने छगे। वर्षों का
पुराना हिन्दी विद्ेंष फिर से जाणत हो उठा | विवश होकर केन्द्र सरकार को समझौते
का रास्ता ग्रहण करना पड़ा। सन् १९६५ के बाद भी अनिश्चित काल के लिए
अंग्रेज़ी को हिन्दी की सहयोगिनी माषा के रूप में बनाये रखने के लिये आवश्यक `
विधेयक आगामी विधान सभा में पारित करने की बात सोची गयी । राष्ट्रपिता ने इमे
इन शब्दों में सावधान किया था “अगर सरकारें और उनके दफ़्तर सावधानी नहीं
लेंगे तो मुमकिन है कि अंग्रेज़ी ज़बान हिन्दुस्तानी की जगह को हड़प के । इससे
हिन्दुस्तान के उन करोड़ों छोगों को बेहद नुकसान होगा जो कमी भी अंग्रेज़ी
समझ नहीं सकेंगे | मेरे ख्याल में, प्रान्तीय सरकारों के लिए यह बहुत आसान बात
होनी चाहिए कि वे अपने यहाँ ऐसे कर्मचारी रखें जो सारा काम प्रांतीय भाषाओं
और अन्तर्प्रान्तीय भाषा में कर सकें |” परंतु दुख की बात है कि भाषा की
पराधीनता से हम अभी तक मुक्त नहीं हो सके | भावात्मक एकता की आधार-शिला
ही हम पक्की न कर पाये |
दक्षिण भारत ने सन् १९१८ में ही हिन्दी का राष्ट्रभाषा के रूप में स्वागत किया
था। राष्ट्रपिता के नेतृत्व और आशीर्वाद से हिन्दी का यहाँ जो प्रचार एवं प्रसार
. हुआ वह गौरव की वस्तु है। पिछले वर्षों में दक्षिण में हिन्दी प्रचार आन्दोलन का
.. सफल नेतृत्व करने में दक्षिण तथा उत्तर के कितने ही उच्च भ्रेणी के नेताओं, त्यागनिष्ठ
हिन्दी प्रचारकों तथा सच्चे देश दितैषियों का हार्दिक योगदान रहा है ।
इन दिनों भावात्मक एकता की आवाज़ क्यों बुलन्द है ! इसलिये कि प्रान्तीयता,
सांप्रदायिकता तथा दलबन्दी की विपैली वायु में इमारा दम घुटने लगा है।
रष्टूमाषा के प्रचार के मूल में गाँधी जी भारत की भावात्मक एकता ही देखते ये ।
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