आत्म आलोचना | Aatama Aalochana

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माणकमुनिजी - Manakmuniji

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सेठ दलीचंद ऊंकारलालजी रांका - Seth Dalichand OOnkarlalji Ranka

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आलोचना-कुछक ও मणुएसु वि जे जीवा, जि््भिदिय-मोहिण-मूढेणं । पारद्धि-रमंतेण, विणासिआ ते वि खामेमि ॥१३॥ मनुष्य-योनि में उत्पन्न होकर, मेने श्सनेन्द्रिय के कारण मग्ध भौर मख बनकर तथा आखट-क्रीदा के दास दिन जीवों का विनाश किया हो, उनको भी खमाता हूँ। फास-गिद्भेण जे चिय, पर-दाराइ-गच्छ माणेण । जे दूमिअ-दृहविआ, ते विअ तिबिहिण खामेमि ॥ १४॥ मेंने स्पशे-इन्द्रिय के विषय मे आसक्त होकर, परस्री-गमन आदि के छारा जिन जीवों को दुमन-पीड़न से दुःखित किया हो, उन्हे भी खमाता है । चकक्‍्खुदिय-घार्णिदि-यसोईइदिय-वसगएण जे जीवा | दुक्खंमि मए ठविआ, ते वि अ तिविहेण खामेमि ॥१५॥ मैंने चक्षु, नाक और कान के वशीभूत होकर, जिन जीबों के दुःख में डाला हो, उन्हें भी खमाता हूं । सामित्त लहिऊरणं, जे बद्धा घाइया य में जीवा। सवराह-निरवराहा, ते वि अ तिविहेण खामेमि ॥१६॥ मेने स्यामिख या सत्ता पाकर, जिन अपराधी-निर- पराधी जीवों कोचन्दी बनाए ओौर मारे হাঁ, उन्हें भी खमाता द| यक्कभिरुण आणा, कारबिआ जे उ साण-भद्लेण । तामम--भाव-गएण, ते वि अ तिविहेण खामेमि ।१७ भेने अपनी आज्ञा का इछंघन करने के कारण मान भग दोन से क्रोषित टोकर, जिन जीं क साथ जवरन




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