आचार्य मुंशीराम शर्मा सोम का साहित्य संवेदना और शिल्प | Acharya Munshiram Sharma Som Ka Sahitya Samvedana Aur Shilp

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Acharya Munshiram Sharma Som Ka Sahitya Samvedana Aur Shilp by रानी अग्रवाल - Rani Agrawal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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डी0ए०वी० कॉलेज में इण्टर की कक्षाओं में हिन्दी का अध्यापन कार्य उनको सौंपा गया। डी0ए०वी० कॉलेज कानपुर में १६२६ में बी0ए० तथा १६४२ में एम0ए० हिन्दी की कक्षायें प्रारम्भ हई । इस प्रकार जुलाई सन्‌ १६२६ से जून १६६२ तक उन्होंने डी0ए0वी0 कॉलेज, कानपुर में हिन्दी विभागाध्यक्ष के रूप में कार्य किया | अध्यापन शैली : . आचार्य सोम का अध्यापकीय जीवन पुरातन गुरूकुल के गुरूओं की जीवनसरणि का अनुगमन करता हुआ चलता था। जिस प्रकार गुरूकूल में शिष्य अपने गुरू का अन्तेवासी होता था, उसी प्रकार “सोम जी के शिष्य अपने को उनके अत्यन्त निकट अनुभव करते थे। भले ही वे उन्हीं के स्थान पर न रहते हों। वे बड़ी सतर्कता के साथ . अपने शिष्यों की जीवन-पद्धति के प्रति सदेव दृष्टि रखते थे। गुरू-शिष्य का सम्बन्ध केवल कक्षा तक ही सीमित न था, अपितु उससे हटकर भी वे अपने शिष्यों के सुख-दुख का ध्यान रखते थे! अनेक विद्यार्थियों की समय-समय पर आवश्यकता के अनुरूप वे भोजन-व्यवस्था, उपचार-व्यवस्था करते हुए पाये जाते थे। उनका गुरु-शिष्य संबंध इतना घनिष्ठ हो जाता था कि उनके विद्यार्थी अध्ययन समाप्त करने के उपरान्त भी उनसे अपने सम्बन्ध बनाये रखने में एक विशिष्ट गोरव की अनुभूति करते थे। कक्षा में वे सदैव ही समय पर आते थे। सरदार पूर्ण सिंह जी का एक लेख है जिसमें आचरण की भाषा को मौन बताया गया है। उसमें यह प्रतिपादित किया गया है कि व्यक्ति अपने सम्बन्ध में कुछ न कहकर अपने आचरण द्वारा ही सब कुछ कह देता है। पंडित जी की भी यही स्थिति थी। कक्षा में प्रवेश करते ही उनकी गुरू गंभीरता को देखकर ही विद्यार्थी प्रायः शांत हो जाते थे। अनुशासन की दृष्टि से कदाचित ही किसी ने आपकी रोषमयी मुद्रा देखी हो अथवा कर्कशवाणी सुनी हो। जब कमी उनकी ` प्रकृति से अनभिज्ञ बाहर से आये हए विद्यार्थी उनकी कक्षा मेँ शोर करते पाये जते थे | तो वे उनकी ओर एक मंदस्मिति के साथ टकटकी बँधकर देखने लगते थे! ऐसा प्रतीत होता था कि उनकी मन्द मुस्कान ही उन विद्यार्थियों को मौन रहने का आदेश दे रही ¢




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