आंचलिक उपन्यास - सम्वेदना और शिल्प | Aanchlik Upanays Samvedna Aur Shilp

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Aanchlik Upanays Samvedna Aur Shilp by ज्ञानचंद्र गुप्त - Gyanchandra Gupt

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आँचलिक उपन्यास १५ २. “ऑचलिद उकपा सो अंचल के सयद्र जीवन्‌ का उपन्यास है, उसका सम्बन्ध जनपद से होता है ऐसा नहीं, वह जतपद की ही कथा है 1” (डॉ० रामदरश मिश्र : हिन्दी उपन्यास : एक अन्तर्याता, पृ० ३ ঘট ३. ऑँचलिक उपन्यास में लेखक देश के किसी विशेय भूमाग पर ध्यान केत कार उमे जीदन কী इस प्रकार प्रस्तुत करता है कि पाठक उसकी अनन्य विशेषताओं, विशिष्ट व्यवितत्व, रीति-परम्पराओं तथा जीवन-विधा के भ्रति सचेत व भाह्प्द हो जाता है 1” (डॉ० देवराज उपाध्याय : हिन्दी रिव्यू मंग्दीन, मई १६५६) ४, “उपस्यासों मे लोक-रंगों को उभार कर किसी अचल-विशेष का ध्ति- निधित्व करने वाले उपस्थाप्तो को आँचलिक उपन्यास कहा जायेगा 17 (डॉ० घनजय वर्मी : आलोचना, अवलतूबर, १६५७) ४. सौचलिवः उपल्यास उन उपस्यासों वी कहते हैं, जितमे किसी विशेष जनपद, अंचल (केश) के जन-जीवेन का समग्र चित्रण होता है ।” (डॉ० विशम्भरनाथ उपाध्याय : साहित्य-मन्देश, जनवरी-फरवरी, १६४५८) ६. “अँचलिक उपन्यास वह हे, जिसमे अपरिचित भूमियों और अज्ञात जातियी के वैविध्यपूर्ण जीवन का चित्रण हो ) जिसमें वहाँ की भाषा, लोकोेबिद, सोक-कथायें, लोकगीत, मुद्दावरे और लहजा, वेश-भूषा, धर्म-जीवन, समाज, संस्कृति तथा आर्थिक और राजनीतिक जागरण के प्रश्न एक साथ उमर कर आएँ । (डा० हरदयाल : आधुतिक हिन्दी गद्य-्साहित्व, १० ८०) रखना $ 'संरचना' शब्द अंग्रेजी के 'स्टृकूघर' शब्द का पर्याय है, जिसका मूल उत्स आवपविक सिद्धान्त है! सरचना में सम्यक्‌ रचना का भान नहीं अपितु उसमें अंतर्ग्रपन, संगुम्फत एवं आन्तरिक सधटना का माव निहित है। कृति बी आन्तरिक अमन्विति चहुस्‍्तरीय एवं संश्विप्ट होती है। उसवी परस्पर लिपटी तहो मे मुषे दषु प्रसंग, घदनावलियाँ, मन.स्थितियों के आवर्त अपने पारस्परिक राव मे हौ सारी विद्रूपता एवं जटिलता को धोतित करते हैं। अत: सेरचता के विभिन्‍न घटकों एवं उनके पारस्परिक सम्दन्धो के विश्लेषण से ही झूति से अंतनिद्वित मुग-सत्य एवं भोगे हुए यपार्प यी सार्थकता एवं प्रामाणिकता की समग्र पहचान सम्भव है । आधिलिक उपत्यासों की ओपन्याध्तिफ संरचना में नये आधाम विकमित हुए हैं और उन नव्य बायाशे के वारण इनकी सरचना वो भी सम्पूर्णता को दृष्टि से हो मौका जा सक्ता है इन उयन्यासोमेन त्तो पारम्बरिक्‌ क्यानवः है, न नाधवः | सवि कै धूल-घूसारित जिन्दगी की व्ययाय कहने वाने दन भविलिकः उपन्यास को मदी- नालो के बोसाहल ने स्वर दिये हैं, वाकी साद्-तायिने गतिदी है, जंगल, वन और घरती की धोंधी गंध ने पएर्डेश दिया है और आदमी के सुख-दु्दों তি भवीन




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