श्रीमद्भगवद्गीता [भाग 3] | Shrimadbhagwadgeeta [Bhag 3]
श्रेणी : धार्मिक / Religious
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
14 MB
कुल पष्ठ :
554
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)| ही० ॥६॥ শীদজমন্তরীনা ` ५५१५
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अर्थ--- सबसे पहलें निष्कामकर्मीकी मिष्ठा, फिर भ्रन्त;:करणकी
शुद्धि तिससे शमदमादि साधन हारा सब कर्मौका सन्यास । तिसमे
वेदान्तवाक्योंके विचारके साथ भगवरूक्तिकी निष्ठा। तिंससे तत्वज्ञानकी
निष्ठा । तिसका फल. त्रिगुणात्मका भ्रविद्वाकीः निबृत्ति छाया प्रारब्धानुसार'
पांचभौतिक देहकी र्थितिपय्थैन्त जीवन्मुक्ति | फिर देह त्याग होजाने-
पर ५ विदेहसुक्ति ” | रिरि पूर्वोक्त जीवम्सुक्तिकी दशम
परभपुरुषाथके श्याश्रयसे परम - वैराग्यकी भाप्ति । तिसकी स्ता
करनेवाली जो दैवी सम्पदारूप शुभवासना है, उसका ग्रहण चौर तिस
बैराग्यकी विरोधिनी जो आसुरीसम्पदारूप अशुभ वासना हैं. तिसका
सर्वदा त्याग । दैवी सम्पदाका असाधारण कारेण सात्तविकश्रद्य, और
आसुरीसम्पदाका असाधारण कारण राजसी. और तामसी श्रद्ा | इनके
ग्रहण और त्यागको' कथन करतेहुए भगवानने परम उत्कृष्ट तारतम्यके
साथ गीताशाखत्रकी समाप्ति करदी है। े
सव है-- परम तचखछके वोधः निमित्त तथा. ससार चन्धनसे
` चटकर भगवत्छरूप्मै लय होनेके निमित्त पहले, यन्तःकरणक्ी शुद्धि
ही की आवश्यकता है जो निष्कामकस्मोके सांघनसे उत्पन्न होती
है ।. बिना; अन्तःकरण शुद्धकिये हुए भगव्तकी. भोरं बुद्धि, मुरती
ही नहीं, न' उसके. चरणोमे! श्रद्धा उसन्न होती| है। जैसे अलम्ते
मलीन वस्मपर किसी प्रकारका सुन्दर रंग नहीं चढसकता। इसी
प्रकार जबतक नाना- भकारेके पाप-कमकिं कारणः तथा काम; क्रोंक
इत्यादि विकारोंके कारण प्राणीका अन्तःकरण मल्लीनः रहता है तबतक
सहसूं यत्न करनेपर भी उसपर भगवूक्तिका रंग नहीं चढसकता |
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