अन्ताराष्ट्रीय विधान | Antarashtriy Vidhan

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Antarashtriy Vidhan by श्री सम्पूर्णानन्द - Shree Sampurnanada

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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মহ. নিগান। ----- ...+-+55..0...... पहिला अध्याय । अन्ताराष्टिय विधानकी परिभाषा ओर उसका स्व॒रूप । कोर शाख हो, उसके आरम्भमे उसके विषयका स्पष्टीकरण अत्यन्त आवश्यक है। यह स्पष्टीकरण तब ही हो सकता है जब विषयके पूरे परे लक्षण बतला दिये जायेँ अर्थात्‌ उसके सामान्य ओर विशेष गुण बतछा दिये जायेँ ताकि उसके परिभाषा स्थानमे किसी अन्य विषयका अम न हो जाय । इसीको सत्परिभाषा कहते है। इस दृष्टस अन्तारा- ष्टिय विधानकी परिभाषा इस प्रकार होगी --अन्तारष्टय विधान उन नियमोंके समूहकों कहते हैं जिनके अनुसार सभ्य राज एक दूसरेके साथ प्रायः बर्ताव करते है । हमारे शाखमे एक विचित्नता है। अन्ताराष्ट्रिय विधानके विषयमें भिन्न भिन्न आचाय्योंके भिन्न भिन्न मत हैं। इस मत-वेषम्यका कारण यह है कि कोई तो इसको विधानशाश्व ( জুহিলগৃউন্ ৪ ) का अङ्ग मानता है अर्थात्‌ इसको उसी द्वष्टिसे देखता है जिस दृष्टिसे कि भिन्न भिन्न देशोंके साधारण फोजदारी तथा दीवानी के विधानोंका विचार किया जाता है, ओर कोई इसको धम्मेशाखके उस विभागमें मिलाना चाहता हे जिसे कतव्याकरतंव्य-शासत्र (इथिक्स) कहते हैं । *#गत8 प70७008




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