श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप | Shrimadbhagvat Geeta Yatha Roop
श्रेणी : पौराणिक / Mythological
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
31 MB
कुल पष्ठ :
670
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (1 सितम्बर 1896 – 14 नवम्बर 1977) जिन्हें स्वामी श्रील भक्तिवेदांत प्रभुपाद के नाम से भी जाना जाता है,सनातन हिन्दू धर्म के एक प्रसिद्ध गौडीय वैष्णव गुरु तथा धर्मप्रचारक थे। आज संपूर्ण विश्व की हिन्दु धर्म भगवान श्री कृष्ण और श्रीमदभगवतगीता में जो आस्था है आज समस्त विश्व के करोडों लोग जो सनातन धर्म के अनुयायी बने हैं उसका श्रेय जाता है अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद को, इन्होंने वेदान्त कृष्ण-भक्ति और इससे संबंधित क्षेत्रों पर शुद्ध कृष्ण भक्ति के प्रवर्तक श्री ब्रह्म-मध्व-गौड़ीय संप्रदाय के पूर्वाचार्यों की टीकाओं के प्रचार प्रसार और कृष्णभावन
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)मानव समाज के लिए अनिवार्य है। भगवद्गीता मेँ इस विषय का सम्पूर्णं वर्णन
ह । दु्भाग्यवश, प्रापञ्चिक वाग्चातुरी करने वाले मूढ गीता জী আন্ত में अपनी आसुरी
प्रवृत्ति को ही उभारते हैं, जिससे अबोध जनता जीवन के सामान्य नियमों के यथार्थ
ज्ञान से भ्रष्ट हो जाती है। प्रत्येक मनुष्य के लिए भगवान् श्रीकृष्ण की महिमा और
जीव के स्वरूप का ज्ञान आवश्यक है। उसे यह बोध होना चाहिए कि जीव स्वरूपतः
नित्य दास है; अतः यदि वह श्रीकृष्ण की सेवा नहीं करेगा तो नाना रूपों में-
त्रिगुणमयी माया की सेवा करनी पड़ेगी, जिससे जन्म-मृत्यु का चक्र बना रहेगा। यहाँ
तक कि अपने को मुक्त समझनेवाला मायावादी ज्ञानी भी वास्तव में इस आवागमन से
नहीं छूट पाता। अस्तु, श्रीभगवान् की महिमा और जीव के स्वरूप का यह ज्ञान
परमोच्च विज्ञान है तथा इसका श्रवण करना जीव के अपने हित में है।
इस कलियुग में लोग सामान्य रूप से श्रीकृष्ण की बहिरंगा मायाशवित से
मोहित रहते हैं और भ्रमवश समझते हैं कि भौतिक सुख-सुविधा की उन्नति से वे सुखी
हो जायेंगे। वे नहीं जानते कि माया बड़ी बलवान है, जीवमात्र उसके दुस्तर नियमों
मेँ वधा हुआ है । जीव का सुख श्रीभगवान् के भिन-अंश के रूप में ही है। उसका
स्वरूपधर्मं यही है कि बिना विलम्ब श्रीभगवान् की सेवा के परायण हो जाय । माया के
वशीभूत हुआ जीव नाना प्रकार से अपनी इन्द्रियों को तृप्त करके सुखी होने का प्रयत्न
करता है; परन्तु वास्तव में इस प्रकार वह कभी सुखी नहीं हो सकता। अपनी
प्राकृत इन्द्रियों को तृप्त करने के स्थान पर श्रीभगवान् की इन्द्रियों को तृप्त करना
चाहिए। यही जीवन की परमोच्च सफलता है।. श्रीभगवान् ऐसा आग्रहपूर्वक चाहते हैं।
मानव को श्रीमद्भगवदूगीता के इस केद्धविन्दु को भलीभौंति समझना है। हमारा
कृष्णभावनामृत आन्दोलन सम्पूर्णं विश्व को इसी केन्द्रविन्दु की शिक्षा दे रहा है। हम
भगवद्गीता की आत्मा को दूषित नहीं करते, इसलिए जो कोई भगवद्गीता के अध्ययन
से यथार्थं श्रेय-प्राप्ति का अभिलाषी हो, वह साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण के माग॑दशेन में
गीता का आचरणीय ज्ञान पाने के लिए कृष्णभावनामृत आन्दोलन का आश्रय अवश्य
ले। हमें आशा है कि हमारे द्वारा प्रस्तुत श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप ' का अध्ययन
कने से जनता का परम कल्याण होगा । इससे यदि एक भी मनुष्य शुद्ध भ्रगवद्भक्त
बना, तो हम अपना प्रयास सफल समङ्गे ।
, ए९ सी० भवित्वेद्ान्त स्वामी
१२ मई, १९७१
सिडनी, आस्ट्रेलिया
गं
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