अथ योगार्य्यभाष्यं प्रारभ्यते | Ath Yogaryabhashyam Prarambhyate

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
श्रेणी :
Book Image : अथ योगार्य्यभाष्यं प्रारभ्यते  - Ath Yogaryabhashyam Prarambhyate

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about अज्ञात - Unknown

Add Infomation AboutUnknown

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
समाधिपाद (७) पश्चात्‌ बुद्धि में प्रतिविम्बित होते हैं और बुद्धि में द्वी उत्पन्न हुई तदाकार वृत्ति सम्पूण विपय पुरुष को दिखाती है, इनमें प्रथमपक्ष प्राचीनों भोर द्वितीय- पक्ष नवीनो का ই परन्तु वेद्किसिद्धान्त में उक्त दोनों पक्ष माननीय हैं । लिल्नपरामश # द्वारा उतन्न हकर अनाधगत तथा घवाधित अर्थ को सामान्यरूप से विषय करनवाली चित्तवृत्ति को “अनुमान” कहते हैं भर्थात्‌ जो वस्तु ष्ठु आदिं इन्द्र्यो के दारा उतपन्न हदं चित्तवृत्ति से नदीं जानी गई किन्तु तु तान के अनन्तर उन्न हद चित्तवात्ति के द्वारा सामान्यरूप से जानी जाय उसको अनुमान कहते हैं,। जआप्तपुरुष प्रत्यक्ष भथवा अनुमान से जाने हुए जिस अनधिगत, भव्राधित भ्रथ का उपदेश जिंस शब्द द्वारा करता है उस शब्द से उत्पन्न हो कर उस अये फ्रो विषय करनेवाछी चित्तवृत्ति को “शब्द प्रमाण” कहते है ॥ इन तीन प्रमाणों से जो पुरुष को ज्ञान होता है वह फरपरमा तथा पौरुषेय वोध कहलाता है अथात्‌ प्रत्यक्ष, अनुमान तथा शब्द प्रमाण से पुरुष को “घटमहंजानामि' = मैने षट को जाना, इस आकार बाढ जो यथाथ ज्ञान उत्पन्त होता है उसका नाम पौरुपेयवोध तथा फलध्रमा दै, यह संक्षेप से प्रत्यक्षादि प्रमाणों का छक्षण फिया गया, इसका विस्तार सांख्याय्येभाष्य?? में भलेप्रकार किया है विशेष जाननेवाले वहा देखलें ॥ सं०~अव विपरयय का .छक्षण करते हैं:-- विपयेयो प्रिथ्याज्ञानमतद्ूपप्रतिष्ठए्‌ ॥<॥ पदृ०--विपर्ययः । मिथ्याज्ञानं । अतद्गुपप्रतिष्ठम्‌। पदा०--' अतद्रपभ्रतिष्ठम्‌ ) जिसकी वस्तु के यथाथसूप मे स्थिति न हो पेसे (मिथ्याज्ञाने) मिथ्यान्नान को (विपर्ययः) विपयेय क्ते हे ॥ भाप्य-“अत्ूपप्रतिष्ठभर ” इस पद म असमथंसमास है, इसलिये _ यह “तद्पाप्रतिष्ठम्‌ ” ऐसा समझना चाहिये, जो ज्ञान वस्तु के यथाथरैरूप में स्थिर नहीं भर्थात्‌ बस्तु के सत्यरूप को विषय न करने घे कालान्तर में. उससे च्युत होजाता है मैसाकि-रज्जु में स्पक्ञान, शुक्ति-सीपी में चांदी का ज्ञान तथा एक चन्द्र में द्वेचन्द्र ज्ञान है, ऐसे मिथ्या ज्ञान का नाम “विपयय” है ॥ तात्पय्य यह है कि जो वस्तु जिस प्रकार की हो उस्रको किसी नेन्नदोष, कः साध्य का नाम लिङ्गी आर साधन फा नाम किद्ध तया देत हे, জিভ जिङ्गी अव्यमिचारी सम्बन्ध को व्याति कहते ह, जक्ष लिझ्ष से लिज्ली को सिद्ध किया जाता है उठकों पक्ष और पक्ष में व्यातिविशिष्ट लिज्न के शान को “दिन्नलपरामश” कहते हैं ॥




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now