श्री पंच प्रतिक्रमण सूत्र | Shri Panch Pratikarman Sutra
श्रेणी : हिंदू - Hinduism
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
18 MB
कुल पष्ठ :
609
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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अन्वयाथ ---'सुहि एस! सुखियों पर -दुहिएसु दुःखियों पे
अ' भौर “अस्संजएसु' गुरु की निश्रा से विहार करने वारे सुसा
घुओं पर तथा असंयतों पर 'रागेण” राग से “व”-क्रेथवा- दोसेण
देषु से मे! :मेंने. जा! जो 'अणुकंपा! ,दफ्या-- मक्ति-को.त
उसकी निदे निन्दा-करता हूं “च' तथा तं उसकी रारिहामि गहं
करता हू ॥ ३९॥ ~` , ` , \ ~ 4.
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, - -भावाथ-- जो साघु ज्ञानादि गुण में रत हैं या च
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वस्त्रपात्र आदि. उपधि वाले हैं, वे सुखी - कहलाते हैं |- जो व्यापि
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से पीडितदै, तपस्या से खिन्न ह या ' वख पात्र -आदि . उपपि
से विदीन ই ই दुःखी कदे जाते हैं। जो गुरु की निश्रो से
उनकी आज्ञा के अनुसार--वर्तते हैं, वे साधु अस्वयूत कहते
हैं। जो:संयमहीन है वे असंयत कद्दे जाते हैं। ऐसे :युखीः
পা
दुःखी, अस्वयत भौर असंयत साधुओं पर यह व्यक्ति मेरा
सम्बन्धी दैः य कुलीन दै या .यह प्रतिष्ठित दे इत्यादि प्रकार के
ममलभाव से. अर्थात् राग चश होकर अनुकम्पा करना त्या
प्रह कगाऊ है, यह जाति-हीन है, यह चिनौना है, इंसलियें इसे,
जो कुछ देना हो, दे कर जल्दी निकाल दो, इत्यादि' प्रकार
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रणाद्यस्नक भाव से अर्थात् द्र ष-वश होकर ' शलुकैम्पां
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* इसकी इस गाथा में आलोचंना की गई है।। ३११०२ [हि गा
साहू ;संविभागो, ऩःकओ:-तवचरणकरणजुत्त তা রি |
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तेः ^फासु्थदाणे, तं; निदे च गरिामि॥ ३२
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