ऋग्वेद भाष्यम् भाग - 4 | Regved Bhashyam Bhag - 4

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Regved Bhashyam Bhag - 4 by मद्दयानन्द सरस्वती - Maddayanand Saraswati

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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1; १२८ ऋग्वेद: छा० २1) अ० ७५1३० 128 | भावार्थ:-ये पुरुषा्धथिनां मनुष्याणां सत्कर्तारो;लसकनां तिर- स्कत्तौरः परिचारकेभ्यः सुखस्य दातार ऐश्वयेवन्तो मवेयुस्त इह नृपतयों मवितुमहेंयु: ॥ ও ॥ ७ पदार्थ हे ( अये ) सूप के समान सुख देंने वाले ( लग ) आप ( झर- ङ्के ) एर पुरुषार्थ करने वाले ऊ लिये (द्रविणोदाः) धन देने बते ( चम्‌ ) आप ( रत्नधा: ) रत्नों को धारण और ( सविता ) ऐस्वर्य के प्रति प्रेरणा करने वाले ( देव. ) मनोहर ( झसि ) हैं । हे ( नृपने ) मनुप्यों की पालना | करने वाले भौर (भगः) 7श्वर्यवान्‌ ( खबर ) आप ( वस्वः) धनों की (ईशिपे ) ईेश्वरता रखते है ( यः ) लो (ते) आप के ( दगे ) निज्ञ घर में ( अविधत्‌ ) विधान करता है उस के ( सम ) आप ( पायः ) पालने वाले हैं | ७ ॥ पृ 9 জী भ नै [ माकाथः-नो पसषार्थी मनुष्या कासत्कारनथा अलस्य करने वाला का ¶ तिरस्कार करने वाले ओ्रौर सेवको के लिये सुर देने वाले ऐश्वर्यवान्‌ हो वे र| संसार में सब के राज्ञा होने को योग्य होते || ७ || पुनस्तमेव विषयमाह ॥ फिर उसी वि० || बाम॑ग्ने दम आ विश्पातें विशस्त्वां राजांन॑ सुविद्र॑ऽजने । लवं विश्वानि स्वनीक पत्यसे चं सहस्रणि शता दश प्रतिं ॥ ८ ॥ तवाम्‌ । भरे । दमं । रा । विदपरतिम्‌ । विशः । लाम्‌ । राजनम्‌ । सुऽविवत्रम्‌ | সচল । तम्‌ । विश्वानि । লৃঃক্সনীক | ঘত্যল । त्रम्‌ । सहस्राणि । शता । द । प्रति ॥ ८ ॥ সপ্ত ४० |




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